एक ख़ुशनुमा शाम - कविता - प्रवीन 'पथिक'

एक ख़ुशनुमा शाम - कविता - प्रवीन 'पथिक' | Hindi Kavita - Ek Khushnuma Shaam - Praveen Pathik
इसी नदी के किनारे
एक ख़ुशनुमा शाम
सूर्य लालिमा लिए छिप रहा था।
संध्या के आँचल में,
चिड़ियों का कलरव, झिंगुरों की झंकार
दूर एक झाड़ी से आ रही आवाज़
निरवता में शांति को भंग कर रहा थी।
बगीचों से फूलों की ख़ुशबु
अंतःकरण को सराबोर कर रही थी।
हम दोनों एक दूसरे से आलिंगनबद्ध
उस दूर क्षितिज पर
अपने सपनों के महल को
छोटे छोटे ख़्वाबों से रच रहे थे।
उस बरस वर्षा थोड़ी देर से आई।
धरती तृषित नेत्रों से आकाश को;
आकाश पथराई ऑंखों से, मेघों को
निहार रहा था।
इन सबके बावजूद
कहीं कोई रिक्तता तो थी;
जो बार-बार मानस में
हलचल पैदा कर रही थी।
हम दोनों एक दूसरे का हाथ थामे
उद्धत थे चिर काल तक
संग चलने के लिए।
कपोल पर लिया चुम्बन
प्रेम की मादकता को बढ़ा रहा था।
कंधे पर सिर रखे,
भावी जीवन की योजनाबद्ध क्षणों को
हम जी रहे थे, तत्क्षण
वह शाम गुज़र गई,
वह वर्ष बीत गया।
पर, तेरी स्मृति, मधु चुम्बन और आलिंगन
आज भी जीवंत लगते हैं।
जिसे रोज़ महसूस करता हूँ
उसी लालिमायुक्त ख़ुशनुमा शाम की तरह।


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