धर्मयुद्ध - कविता - विभान्शु राय

धर्मयुद्ध - कविता - विभान्शु राय | Mahabharat Kavita - Dharmayuddha - Vibhanshu Rai. महाभारत पर कविता। Hindi Poem On Mahabharat
जब कुरुक्षेत्र की रणभूमि में,
लड़ने को सब तैयार हुए,
अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर,
योद्धा रथ पर सवार हुए॥

एक तरफ़ थी कौरव सेना,
और कई शूरमा नामी थे,
किन्तु पार्थ के रथ पर बैठे,
तीन लोक के स्वामी थे॥

फिर बजी समर में रणभेरी,
शंख पांचजन्य का नाद हुआ,
अंबर भी सारा दहल उठा,
ऐसा भीषण निनाद हुआ॥

तभी ऐसा कुछ दृश्य हुआ,
जिसे देख सभी हैरान हुए,
अर्जुन ने माधव से बोला,
सुन भगवन भी कुछ परेशान हुए॥

रथ को रण के मध्य ले चलो,
रण का परिदृश्य दिखला दो ना,
और किस-किस से मुझको लड़ना है,
अंतिम बार मिला दो ना॥

फिर अर्जुन ने देखा रण में,
जो दिखते प्रतिद्वंदी हैं,
गुरु द्रोण, आचार्य, पितामह,
सारे अपने संबंधी हैं॥

महासमर के बीच खड़ा,
दुविधा में ख़ुद को पाता है,
फिर महाबली, वो द्रोण शिष्य,
क्षण एक तनिक घबराता है॥

संबंधों की तुला में बैठे,
ख़ुद को तोल रहा अर्जुन,
गांडीव हाथ से छोड़ दिया,
और माधव से बोल रहा अर्जुन॥

हे माधव! तुम ही बतलाओ,
कैसे इन पर मैं वार करूँ? 
यहाँ खड़े सभी सम्मानित हैं,
कैसे इनका प्रतिकार करूँ?

जिनके आगे थे शीश नवाते,
उनके शीश काट ना पाऊँगा,
और जिसने लड़ना सिखलाया केशव,
मैं उनसे ना लड़ पाऊँगा॥

माना दुर्योधन कपटी है,
पापी है, अन्यायी है,
फिर भी बाण चला दूँ कैसे,
आख़िर वो भी माधव भाई है॥

अब राज-पाठ की चाह नहीं,
ना विजय-तिलक की इच्छा है,
परिवार मार जो गद्दी मिलती तो,
इससे अच्छी प्रभु भिक्षा है॥

फिर माधव ने देखा अर्जुन को,
नयन पार्थ के गीले हैं,
रथ पर थर-थर काँप रहा है,
हाथ धनुष पर ढीले हैं॥

माया में मित्र को फँसता देख,
फिर मायापति मुस्काते हैं,
निष्काम-कर्म का अर्थ बताते,
कर्म-योग समझाते हैं॥

बोले, अर्जुन ये क्या कहते हो,
बस मोह में तुम बहकते हो,
महासमर के बीच पहुँच,
निज पथ से क्यों तुम हटते हो॥

रण में मृत्यु सम्मुख देख,
यूँ अर्जुन तुम घबराओगे,
सम्मान मिलेगा पार्थ नहीं,
बस कायर ही कहलाओगे॥

धर्म-अधर्म में भेद करो,
यह पार्थ घड़ी निर्णायक है,
ये जितने सम्मुख खड़े हुए,
नहीं किंचित शोक के लायक हैं॥

जो-जो पार्थ अन्याय हुए,
इन सबकी भागीदारी है,
स्वजन जिन्हें तुम कहते हो,
सब मृत्यु के अधिकारी हैं॥

भूल गए क्या द्युत क्रीड़ा तुम,
दुशासन के क्रूर अट्टहासों को,
पांचाली के वस्त्र-हरण और,
कपटी शकुनी के पासों को॥

इन अपमानों को याद करो,
और धुँध मोह का छाँटो पार्थ,
यज्ञसेनी को वेश्या कह दी जिसने,
जिह्वा को उस काटो पार्थ॥

कुरुक्षेत्र का रण प्यासा है,
शोणित से इसको सींचो पार्थ,
बाणों का संधान करो और,
प्रत्यंचा को खींचो पार्थ॥

मस्तक से सिकन हटाओ पार्थ,
और क्षुब्ध हृदय को क्रुद्ध करो,
धर्मक्षेत्र में धर्म की ख़ातिर,
अधर्मी से युद्ध करो॥

अंतर्मन में द्वंद है माधव,
संशय का मन में शोर है,
किस शिविर में धर्म है माधव,
अधर्म किसकी ओर है?

कौन चखेगा स्वाद विजय का?
अवजय का विष कौन पिएगा?
किसे मिलेगी मृत्यु रण में?
और कौन अंत तक जिएगा?

फल नहीं है वश में पार्थ,
बस कर्म तुम्हारे हाथ में है,
तुम तो केवल इतना सोचो कि,
धर्म तुम्हारे साथ में है॥

बस कर्म पे ध्यान लगाओ तुम,
और समरभूमि में कूद पड़ो,
पाप-पुण्य सब मैं देखूँगा,
तुम तो केवल युद्ध लड़ो॥

मौन खड़ा सब सुनता था,
सहसा मुख फिर खोल गया,
हाथ जोड़ कर श्री चरणों में,
माधव से अर्जुन बोल गया॥

बोला, प्रभु मैं अंतस् का अंधकार,
तुम दैदीप्यमान दिवाकर हो,
मैं उर-सिंधु में उठता मोह-ज्वार,
तुम नीति ज्ञान के सागर हो॥

धर्म-अधर्म मैं समझा माधव,
मुझे धर्म का मान बताओ,
जन्म-मरण का ज्ञान बताओ,
और क्या है माधव परम सत्य,
मुझको अपनी पहचान बताओ॥

हे पांडु के पुत्र! सुनो,
सब सविस्तार बतलाता हूँ,
बस कुछ छंदों में पार्थ सुनो,
जीवन का सार सुनाता हूँ॥

हे पार्थ, मैं ही हूँ परब्रह्म,
मैं अखिल-ब्रह्माण्ड रचेता हूँ,
मैं ही हूँ काल-खण्ड सकल,
मैं द्वापर, कलियुग, त्रेता हूँ॥

और पार्थ, तू पहचान मुझे,
मैं इस जग का अधिष्ठाता हूँ,
मैं ही ये ब्रह्माण्ड बनाता,
फिर मैं ही इसे मिटाता हूँ॥

ये सूर्य-चंद्र, ये ग्रह-नक्षत्र,
सब मेरी ही इच्छा से चलते हैं,
ये प्रलय-सृजन, ये जीवन-मरण,
सब मेरे ही अंक में पलते हैं॥

ये काम-क्रोध, ये प्रेम-मोह,
और ये जो नश्वर काया है,
नाश पर जिसके शोक तू करता,
सब मेरी ही माया है॥

शोक देह का करते हो,
यही तो पार्थ भूल है,
शरीर तो है नाशवान,
बस आत्मा ही मूल है॥

और ना आत्मा का जन्म पार्थ,
ना आत्मा का अंत है,
मृत्यु बस पड़ाव एक,
यात्रा अनंत है॥

मैं सर्वकला का ज्ञानी हूँ,
मैं कालों का अंतर्यामी हूँ,
मैं ही काल जो बीत गया,
और मैं ही काल आगामी हूँ॥

यह मेरा अवतारी रूप है,
मैं अजन्मा, अविनाशी हूँ,
मैं ही ब्रह्मा, शंकर हूँ,
मैं ही बैकुंठ निवासी हूँ॥

आरंभ, मध्य और अंत भी मैं,
मैं ही नूतन और पुरातन हूँ,
मैं वेदों में सामवेद और,
मैं ही सत्य सनातन हूँ॥

हे पार्थ! मैं ही हूँ पंचतत्व,
भू, जल, नभ, पवन, आग,
मैं वाणी में ओमकार हूँ,
और नागों में शेषनाग॥

मैं ही राम,
मैं परशुराम,
मैं देव-दैत्य,
जाति तमाम॥

मैं हूँ अनंत,
मैं निराकार,
मैं सर्वव्यापी,
मैं विश्वाधार॥

मैं ही गोकुल की गलियों में,
मधुर बंशी की धुन सुनाता हूँ,
और मैं ही धर्म की रक्षा ख़ातिर,
ये सुदर्शन चक्र उठाता हूँँ॥

धरा बचाने के ख़ातिर,
मैंने हिरण्याक्ष को मारा है,
और धनंजय, मैंने ही,
अहिल्या को तारा है॥

जब बलि के भुजबल से था,
इंद्रासन भी काँप गया,
तब मैं ही वामन रूप में आकर,
एक पग में धरती नाप गया॥

पाप मिटाने ख़ातिर बदलूँ,
अनगिन वेश निरंतर मैं,
मैं मानव-मन की श्रद्धा हूँ,
मेरा वास मनुज उर-अंतर में॥

सुनी बातें जब अर्जुन ने तो,
विचलित था अब धीर हुआ,
फिर उठा रथ से गांडीव धनुष,
अब लड़ने को फिर वीर हुआ॥

फिर जगी रण में रणचण्डी,
शिव-शंकर का जयघोष हुआ,
जहाँ अश्रु की धारा थी,
उन आँखों में अब रोष हुआ॥

फिर कुरू सेना में अर्जुन ने,
ऐसा प्रलय मचा डाला,
लहू से भूमि लाल हुई,
लाशों से समर सजा डाला॥

मैं स्याही से सम्रांगण का,
रक्तिम संग्राम लिखता हूँ,
न्याय-धर्म की इस अमर गाथा को,
अब सहज विश्राम लिखता हूँ॥

विभान्शु राय - ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)

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