सुरेन्द्र जिन्सी - नई दिल्ली (दिल्ली)
अक्टूबर की सुबह - कविता - सुरेन्द्र जिन्सी
शनिवार, अक्टूबर 18, 2025
आज मैं उसे नहीं जगाऊँगी।
रात को देखा था—
वह जागता रहा देर तक,
जैसे कोई शब्द तलाश रहा हो
जो शब्दकोश में नहीं है।
खिड़की खुली है,
पेड़ से पत्ते गिर रहे हैं —
धीरे, बहुत धीरे —
जैसे थकान से टूटती आशा।
टेबल पर रखी चाय ठंडी है,
किताबों में अब अक्षर नहीं,
सिर्फ़ रगड़ है —
जैसे किसी ने बार-बार मेहनत से
आवाज़ मिटाई हो।
मैंने सोचा —
शायद आज बोलेगा कुछ,
“माँ, मेरा हो गया चयन।”
पर उसके होंठ बंद हैं,
और दीवार पर टंगी घड़ी
टिक-टिक नहीं,
साँस लेती है भारी।
मैंने दरवाज़ा आधा खोला — वही चादर,
वही सिरहाना, वही असफलता
जो पिछले साल भी थी।
बस फ़र्क़ इतना है, इस बार वह उठा नहीं।
मैंने आरती की आवाज़ सुनी —
“जय जय माँ जगदम्बे”—
और भीतर से एक सवाल आया,
क्या हर माँ देवी होती है?
या कुछ माताएँ सिर्फ़ इंसान रह जाती हैं,
जो अपने बच्चों को जगाने की हिम्मत खो देती हैं।
बारिश शुरू हो गई है —
धीरे-धीरे,
जैसे ऊपरवाला भी
किसी फॉर्म के रिज़ल्ट में देर कर रहा हो।
मैंने खिड़की बंद नहीं की,
बस इतना किया
टेबल से वह कागज़ उठाया
जिस पर लिखा था - “माँ, अब मैं लौटना चाहता हूँ।”
काग़ज़ गीला हो गया है,
पर अक्षर अब भी साफ़ हैं।
जैसे किसी की हार में ईश्वर का हस्ताक्षर हो।
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