काश! - कविता - प्रवीन 'पथिक'
शुक्रवार, अगस्त 01, 2025
बहुत दिन हुए उनसे मिले हुए,
देखा नहीं बहुत दिनों से।
बात तो
फाल्गुन के पहले बयार से
ही शुरू हुई थी।
मिले, आषाढ़ के पहली बारिश में।
भीगने से बचने के लिए,
छिपा तो था
तुम्हारे दरवाज़े के छप्पर के नीचे।
जहाॅं तुम आईं;
और भीतर ले के चली गईं।
'ना' कहने की कोशिश में,
'हाॅं' बोल दिया।
और अगले क्षण तुम्हारे पिता के सामने
सिर झुकाए अपने साक्षात्कार में
अपनी योग्यता, शिक्षा-दीक्षा व कार्यों का
ब्यौरा देते हुए जर-ज़मीन के साथ
पारिवारिक आय तक
पूछ लिया था आपके पिता ने।
वह क्षण,
आज भी रोमांचित कर देता है।
भीतर एक गुदगुदी होने लगी।
मन दिवास्वप्न में गोते लगाना भी,
आरम्भ कर दिया।
तुम आईं, चाय लेकर
पलकें झुकाए खड़ी हो गई।
चाय का प्याला देते ही
स्पर्श हो गया था;
तुम्हारे कोमल करों से मेरा हाथ।
वह छुवन आज भी
महसूस करता हूॅं।
वो लम्हें,
जीवन के स्वर्णिम पल थे।
जहाॅं पाॅंच सौ सीढ़ियाॅं चढ़ने के बाद,
साथ-साथ माता के मंदिर में
घुटने टेक, माँगा था एक दूसरे को।
हम मिले!
पर, वैसे नहीं
जैसे चाॅंद के साथ उसकी चाॅंदनी रहती है।
या फूलों के साथ उसका सुगंध।
टिश आज भी उठता है हृदय में,
जैसे सागर में लहरें उठती हैं।
मन अधीर होकर
एक ही प्रश्न करता है–
काश! हम मिल गए होते।
या काश! हम मिले ही नहीं होते...
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