स्वराज के अग्रदूत: लोकमान्य तिलक - कविता - रतन कुमार अगरवाला

स्वराज के अग्रदूत: लोकमान्य तिलक - कविता - रतन कुमार अगरवाला | Hindi Kavita - Swaraj Ke Agradoor Lokmanya Tilak | लोकमान्य तिलक ल पर कविता
जब युग बंधा था पराधीनता के हथकंडो से,
जब देश था जकड़ा फ़िरंगी के पाखंडों से।
तब उठे थे तुम, एक ज्वालामुखी बनकर,
संघर्ष के रण में, अनल तुम चहूँमुखी बनकर।

“स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” – 
न केवल नारा, यह जन जन का शृंगार है।
हर ज़ुबाँ पे ये मंत्र, हर धड़कन में ये विचार,
तुमने रचा था भारत के नवयुग का संसार।
 
'केसरी'-'मराठा' की क़लम बनी थी शस्त्र तुम्हारा,
हर शब्द था वज्र, हर वाक्य में इंक़लाब का नारा।
तुम्हारी लेखनी ने चीर दी थी ग़ुलामी की चादर, 
बिन हवा, बिन धार, बहा ज्ञान का समंदर।
 
होम रूल आंदोलन की नींव जब तुमने रखी,
हर गाँव, हर नगर ने क्रांति की ललकार चखी।
भारतीयता के गर्व को तुमने फिर से जिया, 
अंग्रेजों की आँखों में भी घोर भय भर दिया।
 
गणेश उत्सव, आदि बन गए जनबल का स्रोत,
संस्कृति की आड़ में फोड़ा आज़ादी का अखरोट।
धर्म, इतिहास, साहित्य – सब बने तेरे उपकरण, 
जनमानस की चेतना बन गई तुम्हारी हर किरण।
 
तुम केवल नेता नहीं, एक स्वतः विचारधारा थे,
कठोर बाहरी स्वरूप में, भीतर सहृदय धारा थे।
तप, त्याग, तर्क और तेज़ का अनुपम समागम,
तुम्हारे दर्शन में था आत्मगौरव का अद्भुत संगम।
 
आज तुम्हारी पुण्यतिथि पर सब शीश नवाते हैं,
तेरे अधूरे स्वप्न को फिर अंतस में जगाते हैं।
जब तक रहेगा देश, जब तक जन-गान रहेगा, 
लोकमान्य! तुम्हारा नाम स्वर्ण समान रहेगा।
 
हे माँ भारती के सुपुत्र, तुम्हें है शत शत नमन,
करते अर्चना तुम्हारी, करते तुम्हे चरण वंदन।
जगाया तुमने जनमानस में, राष्ट्रवादी स्पंदन, 
आज पुण्यतिथि पर, माँ भारती करती सुमिरन। 
 

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