जंगल के पेड़ - कविता - सूर्य प्रकाश शर्मा 'सूर्या'
सोमवार, जुलाई 28, 2025
जंगल में लगे हुए हरे-भरे, समृद्ध पेड़ों को
काटने के लिए आया लकड़हारा,
लेकिन हुआ यूँ कि—
पेड़ों ने दिखाई एकता
और उस लकड़हारे के विरुद्घ
विद्रोह कर दिया।
हारकर वापिस जाना पड़ा लकड़हारे को,
और इस तरह बच गई जान
सभी पेड़ों की।
कुछ दिन बाद आया दूसरा लकड़हारा,
उसे अंदाज़ा था
पेड़ों की एकता का,
उसने चली एक नई चाल
गया बरगद के पास, बोला—
''तुम इतने विशाल बरगद
क्यों लड़ते हो इन तुच्छ से पेड़ों के लिए
तुम्हारी कीर्ति महान
धूमिल होती है इससे।''
इसी तरह देवदार को चीड़ के विरुद्ध
अशोक को आम के विरुद्ध
तथा अन्य पेड़ों को
बाक़ी अन्य पेड़ों के विरुद्ध भड़काकर
चला गया वो लकड़हारा।
गुज़रे कुछ और दिन,
एक दिन लकड़हारा अपने साथ
कई और लकड़हारे भी लाया था
क्योंकि उसे विश्वास था, कि—
''एक जाति को, दूसरी जाति के विरुद्ध भड़काना,
अपनी सत्ता स्थापित करने का सबसे अचूक उपाय है।''
हुआ भी वही,
सारा जंगल जातियों में बँट चुका था।
आम का समाज, बरगद का समाज,
देवदार का समाज
और ना जाने कितने ही समाज
जंगल में पैदा हो चुके थे।
कहीं भी नहीं बचा था—
पेड़ का समाज।
वे सभी नष्ट कर देना चाहते थे
एक-दूसरे पेड़ के अस्तित्त्व को ही।
सबसे पहली कुल्हाड़ी चली बरगद पर,
बरगद ने बोला— ''मुझे क्यूँ काटते हो?
मैं तो हूँ तुम्हारा मित्र!
मैंने तुम्हारे ही कहने पर,
सारे तुच्छ पेड़ों के लिए लड़ना छोड़ दिया था।''
लकड़हारे ने हँसते हुए कहा—
”समाज टूटने के क्रम में,
जो भी सबसे पहले
अपनी भागीदारी निभाता है,
आदमी हो या पेड़
ये निश्चित है
कि कटने के क्रम में भी
वही सबसे पहले काटा जाता है।”
जब तक बरगद कुछ और बोल पाता,
बरगद पर कुल्हाड़ी चल गई।
बाक़ी सारे पेड़ ताली बजाकर ख़ुश होने लगे,
लकड़हारा अपने साथियों से बोला—
''इस बार बरगद काफ़ी है,
अगली बार देखेंगे देवदार, अशोक, आम, चीड़ आदि को।''
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