आत्मबोध - गीत (लावणी छंद) - संजय राजभर 'समित'
शनिवार, जून 21, 2025
कोई कठिन जादू नहीं तू,
न ही सरल छू मंतर है।
इधर-उधर न खोज रे! ख़ुद को,
तू अपने ही अंदर है।
तू ही चैतन्य, तू ही सत्य,
तू शाश्वत ज्योति पुंज है।
धर्म, अर्थ औ' काम मोक्ष से,
परे, तू अलौकिक कुॅंज है।
गर भटक गया भव सागर में,
समझना जीवन व्यर्थ गया।
तू काट सारी बेड़ियों को,
धम्म रूप में ख़ंजर है।
इधर-उधर न खोज रे! ख़ुद को,
तू अपने ही अंदर है।
अपना दीप स्वयं बनकर,
जो लोग जलें, सूरज हैं।
तू अजन्मा एक सूत्र शक्ति,
जो जाने, ढलें, सहज हैं।
तू ही एक ऐसी ऊर्जा,
औ' समाहित निर्बाध है।
कण-कण से कण-कण बॅंधी रहे,
कण-कण भाव समंदर है।
इधर-उधर न खोज रे! ख़ुद को,
तू अपने ही अंदर हूॅं।
पोथी-पतरा, मंदिर मस्जिद,
खोज जहाॅं तक पहुॅंच सके।
लेकिन जो भी अंदर झाॅंका,
बस वही पार उतर सके।
आत्म निरीक्षण कर ले मानव,
प्राप्त कर ले चैतन्य को।
समय नही है समय से देख,
तू अक्षय दीपांकर है।
इधर-उधर न खोज रे! ख़ुद को,
तू अपने ही अंदर हूॅं।
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