सुनीता प्रशांत - उज्जैन (मध्य प्रदेश)
लड़की - कविता - सुनीता प्रशांत
रविवार, दिसंबर 08, 2024
वो हँसती है
हँसने दो, दिल खोलने दो
न जाने कब से हँसी नहीं
न जाने फिर मिलेगी ख़ुशी यही
पंख उसे अपने खोलने दो
उसे मुक्त आकाश में उड़ने दो
तोड़ा है शायद उसने आज पिंजरा
भूल जाना है जो उसके साथ गुज़रा
मत याद दिलाओ उन बातों को
उसे पुरानी यादें भूलने दो
हँसी है वो आज उसे हँसने दो
कितनी लक्ष्मण रेखाएँ थीं
कौन-कौन-सी मर्यादाएँ थीं
रेखाओं को उन लाँघने दो
बंधन सारे छोड़ने दो
खुली हवा में उसे साँस लेने दो
आज हँसी है वो, उसे हँसने दो
कितनी हिम्मत जुटाई होगी
अपने आप को समझाई होगी
बमुश्किल पिंजरे से बाहर आई होगी
अब न तोड़ो उसकी हिम्मत को
अपने आप में उसे रहने दो
आज हँसी वो मुद्दतों बाद
उसे मन मुक्त हँसने दो
सपने भी कितने टूटे होंगे
मन भी अपना मसोसा होगा
यूँ ही ख़ुद को समझाया होगा
सपनों में उसे अब जीने दो
उसे जी भर कर हँसने दो
देखो हँसी में उसके फूल झरेंगे
दिन रात अब निखरेंगे
गुलाब, जूही, चंपा, चमेली
जैसे फूल बिखरेंगे
फूल हँसी के झरने दो
बस उसे अब हँसने दो
बस अब उसे दिल खोलकर
हँसने दो, हँसने दो।
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