कवि का अस्त नहीं होता है - कविता - राघवेंद्र सिंह
गुरुवार, सितंबर 19, 2024
विविध ऋचाओं को रचकर भी,
कवि अभ्यस्त नहीं होता है।
रवि का अस्त तो हो जाता है,
कवि का अस्त नहीं होता है।
हर क्षण, प्रतिपल नवल चेतना,
अंतर्मन में नित रखता है।
संघर्षों की प्रतिवेदी पर,
स्वयं को ही जीवित रखता है।
शब्द-शब्द को अवशोषित कर,
मेघों का वह रूप है धरता।
नित नव काव्य सृजन करके वह,
नित ही नव पथ पर है बढ़ता।
नव पथ पर बढ़कर भी कवि का,
जीवन समस्त नहीं होता है।
रवि का अस्त तो हो जाता है,
कवि का अस्त नहीं होता है।
निज पीड़ाओं को सहकर भी,
सदा कल्पना में है रहता।
किसी सिंधु को पा जाने हित,
सरिताओं की धार सा बहता।
अपनी काव्य रश्मियों से नित,
पूर्ण सृष्टि को शीतल करता।
कहीं रुदन, शृंगार, करुण रस,
कहीं हास्य से समतल करता।
अप्रत्याशित कुंठाओं से,
विचलित, त्रस्त नहीं होता है।
रवि का अस्त तो हो जाता है,
कवि का अस्त नहीं होता है।
रवि करे विस्तारण रश्मि का,
साँझ सहेजे ढल जाता है।
किंतु कवि निज काव्य रश्मियाँ,
पूर्ण जगत में फैलाता है।
शिशु की भाँति दुलार शब्द को,
नित्य अलंकृत वह है करता।
सबकी पीड़ाओं को सहकर,
काव्य कृति वह नित है रचता।
कृतियों को कर शृंगारित वह,
स्वयं प्रशस्त नहीं होता है।
रवि का अस्त तो हो जाता है,
कवि का अस्त नहीं होता है।
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