एहसास के पन्ने पर चल मोहब्बत लिखते हैं
और बनाते हैं कुछ नोट काग़ज़ के
ख़रीद फ़रोख़्त के इस मौसमी दौर में
मैं तुझे ख़रीदता हूँ तूँ मुझे ख़रीद
दुनिया के फेर में न पड़कर फेरते हैं कुछ सिक्के भरोसे के...
कुछ तूँ रख ले और कुछ मैं
आ तय कर ले मैं से हम तक का सफ़र
जहाँ मैं के लिए कोई जगह न हो
फिर बोते हैं हसीन रिश्तों को
भरोसे की ज़मीन पर...
और उगाते हैं भरोसे के पौधे
जो आगे चलकर शतायु हो जाएँ
अटूट धागों से बाँध लेते हैं एक दूजे को
जो बनें हों चाह के रेशे से
दुनिया की कहनवाजी के एवज़ में
चल बहरे हो जाते हैं दोनों
और कर लेगें क्षणिक बातें इशारों में
कौन कहीं दोनों हक़ीक़त में बहरे हैं
सबकी आवाज़ें जब कर्कश हो जाएँ तो
ख़ुद के अधरों को मौन कर लेना वाजिब है
हमें तो आता ही है आँखों से बाते कर लेना!
सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)