चाहे सौभाग्य स्वयं हो द्वार खडे,
चाहे कर्ता भी हो भूल पड़े,
नहीं चाहता आसाँ हो जीवन,
चाहे मग में हो शूल गढ़े।
जो पत्थर होऊँ तो नींव मिले,
होऊँ काँटो में फूल खिले,
नहीं चाहता आसाँ हो जीवन,
सहर्ष वरण संघर्षो का हार गले।
ना बनना चाहूँ मोती,
जहाँ सरिताएँ मीठी मृदुल बहे,
कंकड हो जाऊँ उस प्रपात का,
जहाँ धाराएँ तीव्र बहे।
नहीं चाहता आसाँ हो जीवन,
जो फिर भी बन जाऊँ मोती,
तो गहरे खारे सागर के क्षीर तले।
ना बनना चाहूँ हीरा,
जो अहम के बीज जने,
फ़ौलाद बनु उस तपती भट्टी का,
चाहे जितनी भी चोट पड़े।
नहीं चाहता आसाँ हो जीवन,
जो फिर भी बन जाऊँ हीरा,
तो मिल जाऊँ कहीं धूल सने।
मयंक द्विवेदी - गलियाकोट, डुंगरपुर (राजस्थान)