जो सहज सुलभ हो - कविता - मयंक द्विवेदी

जो सहज सुलभ हो - कविता - मयंक द्विवेदी | Hindi Prerak Kavita - Jo Sahaj Sulabh Ho - Mayank Dwivedi
जो सहज सुलभ हो अमृत तो
तुच्छ अमृत का क्यूँ पान करूँ
इससे अच्छा तो विष पीकर
विष का ही गुणगान करूँ

कूल सिंधु के बैठे-बैठे
क्यों मौजों का उपहास सहूँ
इससे अच्छा तो कूद सिंधु में
मौजों से दो-दो हाथ करूँ

भय के साए में कब तक 
कब तक पराश्रय में विश्राम करूँ
इससे अच्छी तो मृत्यु है
जब तक जियूँ सीना तान चलूँ

कैसे कह दूँ सौभाग्य नहीं है
कैसे परिश्रम का अपमान करूँ
इससे अच्छा तो अथक अभ्यास करूँ
फिर प्रारब्ध से सवाल करूँ

कब तक अँधेरों को कोसूँ मैं
कब तक सूरज का आह्वान करूँ
इससे अच्छा तो स्वयं आलोकित हो 
स्वयं व औरों में प्रकाश करूँ


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