जो सहज सुलभ हो अमृत तो
तुच्छ अमृत का क्यूँ पान करूँ
इससे अच्छा तो विष पीकर
विष का ही गुणगान करूँ
कूल सिंधु के बैठे-बैठे
क्यों मौजों का उपहास सहूँ
इससे अच्छा तो कूद सिंधु में
मौजों से दो-दो हाथ करूँ
भय के साए में कब तक
कब तक पराश्रय में विश्राम करूँ
इससे अच्छी तो मृत्यु है
जब तक जियूँ सीना तान चलूँ
कैसे कह दूँ सौभाग्य नहीं है
कैसे परिश्रम का अपमान करूँ
इससे अच्छा तो अथक अभ्यास करूँ
फिर प्रारब्ध से सवाल करूँ
कब तक अँधेरों को कोसूँ मैं
कब तक सूरज का आह्वान करूँ
इससे अच्छा तो स्वयं आलोकित हो
स्वयं व औरों में प्रकाश करूँ
मयंक द्विवेदी - गलियाकोट, डुंगरपुर (राजस्थान)