तुम पर दाग़ है - रेखाचित्र - ईशांत त्रिपाठी

तुम पर दाग़ है - रेखाचित्र - ईशांत त्रिपाठी | Rekhachitr - Tum Par Daagh Hai - Ishant Tripathi. दाग़ पर रेखाचित्र
सोलह वर्षीय एकलौता बेटा हर्शल अपने पिता के डाँट से आहत भीतर ही भीतर चूर हो चुका था। जबसे उसे चेतना मिली तबसे आज तक अपने ऊपर होते कटु व्यंगों की प्रहारमयी सीमा मानों टूटती जान पड़ी। वह किसी से मिलने जुलने और क़रीब आने में असहज होता था। पिता ने डाँटते समय हर बार जताया कि उनके मरणोपरांत उसका कोई अस्तित्व नहीं होगा‌। इधर हर्शल को लगता कि उसकी माँ क्रोधी प्रवृत्ति की है और उनका पूरा ध्यान अपने भाई-भतीजों में नाचता है इसलिए उसकी ग़लती पाकर उसे बेतहाशा पीटती‌ भी हैं। हर्शल अपने जन्म को दुर्भाग्य समझता था लेकिन पिता की बातों से मानो प्रमाणिक हो गया है उसके चित्त में उकेरी यह कुंठित भावना। उसकी आँखों से निकसित अश्रुकण पुनः जीवन देने की भूल न करने के लिए ईश्वर से शपथ लेतीं हैं। आवेश में फाँसी का फंदा तैयार करके झूल पड़ता है, दो क्षण में ही लाल-पीली अकबकाहट आँखों के सामने छा गई और शरीर में विद्युत सी जकड़न उभर आई। वह जेब में कैंची लेकर फंदा चढ़ा था जैसे उसे पूर्व आभास था कि नहीं हो पाएगा। उतरा मंच से और इस तमाशा को तत्क्षण रफ़ा-दफ़ा किया जैसे कुछ हुआ ही न हो। हर्शल ने स्वयं को क़सम दी कि आज के बाद कभी इस प्रकार नप्राणांत के विषय में नहीं सोचूँगा‌ पर इनके (समाज-परिवार के) साथ भी नहीं रहूँगा। मैं जहाँ भी रहूँ, जैसे भी रहूँ, रह लूँगा और प्रकृति मुझे मृत्यु का आराम देगी तभी मृत्यु स्वीकार करूँगा।

दसवीं पास हर्शल रात्रि के दो बजे घर वापस न आने के संकल्प को मढ़ते हुए घर से चुपचाप निकल गया। जिस बच्चे ने कभी अकेले अपने घर के छत पर भी क़दम नहीं रखा हो, वह आज घर छोड़कर चला गया है। घोर रात्रि थी, सड़क सूनसान और भयानक कुत्ते शेर बन रहे थे। हर्शल ने घर से एक छड़ी तक न ली थी कि उसे घर का कुछ नहीं चाहिए; जो  वस्त्र पहने थे, उसको उसने विद्यालय से पुरस्कार में पाया था। रास्ते में छड़ी-डंडे ऐसे गायब हुए जैसे ज्येष्ठ मास में वर्षा के मेघ।वह साहस बाँधता डरता-भनकता बड़ी-बड़ी इमारतों को देखता मन ही मन सोचता कि इनमें झाड़ू पोंछा करूँगा तो मुझे प्यार और खाना मिलेगा, पैसे मिलेंगे तो पढ़ाई भी करूँगा। कुत्तों की भौंक से उसके प्राण कंठ तक आ पहुँचते थे। वह फिर भी आगे बढ़ता रहा और बस स्टेशन पहुँचा। वहाँ कुछ हलचल है। वह बैठ गया एक स्थान पर, चन्द्रमा को टकटकी दृष्टि से देखता है और मन ही मन विचारता है कि पहली बार उसने ग़ौर से इस दुनिया को, इस चंद्रमा को देखा है। हर्शल चंद्रमा से बातें करते हुए कहता है कि चंदा मामा! जो तुम पर दाग़ है, उसके कारण लोगों की बड़ी अवमानना सहनी पड़ती होगी तुमको भी न! तुम चिंता मत करो, तुम जैसे भी हो मेरे हो, मेरा अब कोई नहीं, तुम्हारे उस दाग़ को मैं अपना बना लूँगा, मैं बहुत प्यार करूँगा तुमको। इन्हीं भावनात्मक दार्शनिक बातों के प्रभाव से हर्शल को थोड़ी सी पथरीली धूलधूसरित जगह में चैन की नींद आ गई। देर दुपहरी भीड़ के हल्ले में नींद खुली। अब उसे तेज़ भूख और प्यास लगी थी।उसकी हिम्मत नहीं थी माँगने की क्योंकि उसको आत्मसात थी पिता जी की दी सीख कि माँगना और मरना एक बराबर होता है।वह बैठा चारों ओर के दृश्य को पढ़ रहा था। यात्रियों का आना जाना और व्यापारियों की चिकनी-चुपड़ी जालसाजी बातें दर्शन के गूढ़ोत्तर गूढ़ ज्ञान उसके मन की सतह को सींचने लगे। वहाँ कोई सज्जन भिखारियों को भोजन वितरित करने आया और इस बात को जानकर भी हर्शल ने भोजन के लिए कोई प्रयास नहीं किया ताकि उसके स्थान पर किसी अधिक भूखे को भोजन मिले। वह देखता है कि बड़े-बड़े घरों में लोग भोजन संबंधित साफ़-सफ़ाई पर कितना जद्दोजहद करते हैं और हॉस्पिटल भी सबसे ज़्यादा यही लोग जाते हैं लेकिन यह सामने बैठी भिखारिन अपने चार नन्हें बच्चों को जैसे तैसे बड़े लाड़-प्यार के साथ धूलमय वातावरण में भोजन दे रही है और ख़ुश-स्वस्थ भी है। शास्त्र सही कहतें हैं कि अन्न सम्मानित होने पर आशीर्वाद देते हैं। 

इधर सुबह हर्शल को बिस्तर पर न पाकर पिता बेचैन हो गए। माँ ने क्रोध में सारा घर-मोहल्ला देख लिया पर बेटा नहीं मिला‌। अब दोपहर तक तो माँ-पिता दोनों के प्राण आधे सूख गए। माँ का रूपांतरण हो गया, वह वात्सल्य वियोग क्रंदन कर हर्शल के पसंद का भोजन बनाती है कि वह जानेगा तो ज़रूर आएगा। पिता अपने डाँटने के पश्चाताप में आँसू रोक न पा रहे थे‌। पुलिस की सहायता के लिए 24 घंटा इंतेज़ार करना था। इसलिए पिता और माँ अपनी गाड़ी से सारा शहर ढूँढ़ने निकलते हैं। सारा शहर ढूँढ़ भी लेते हैं पर वही हिस्सा बस स्टेशन का नहीं देखते हैं जहाँ हर्शल अनजान बैठा था। शाम होने को आ रही थी, हर्शल उस भिखारिन माँ के ममता से ईर्ष्या करता है और अपने घर को बढ़ता है कि अब मैं भी अपने माँ को चूमूँगा, गले लगाऊँगा और उसके हाथ से खाना खाऊँगा। मेरे माता-पिता क्रोध करते हैं तो मेरे अच्छे के लिए ही होगा न। वह घर पहुँचता है। विकल माता देखकर अपने बेटे को आँचल से पोंछते हुए कहती हैं कि तुम पर दाग़ है बेटा, कहीं चोट तो नहीं लगी‌। इतने में पिता ख़ुशी से चीख़ते अपने प्यासे बेटे हेतु पानी लेकर दौड़े। 

ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्य प्रदेश)

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