चंद छन्द कहकर,ओझल कौन?
विरह वंदित, क्युँ करता मौन?
पीडा़ हो गई भाव-विहिन?
भाव-विहिन हृदय से,
गड़ता कविता कौन?
शब्दों में ढलता ही नहीं भाव,
खुरचने से निकलता घाव,
अलावा इसके, "कैसे हो"?
वक्तव्य सुनता अब कौन?
अनंत खिंची रेखा, "मौन",
सब अपने, तो "पराया" कौन?
वक़्त कभी तो रुकता होगा?
हृदय कभी तो दुखता होगा?
साँझ कभी तो ढलती होगी?
"निशब्द", होकर दिखती होगी!!
पत्थर हो या तारे,
कभी तो झिलमिलाते होंगें?
या परिचय मे संसार "सतव्य" हो गया,
आतुरता, छटपटाहट से,
क्यूँ मन निर्लिप्त हो, मौन हो गया,
"निष्ठुरता", को सादर नमन,
"निर्लिप्तता", को सादर नमन,
कोई सिरा चुभे, तो "विषारद",
ना चुभे!! तो थे, 'पारद के नारद"
समझे ही नहीं, कभी इबारत,
ना मौन,
ना स्वीकृति,
ना चमक,
ना ओझल परछाई निहारते नैन,
ना भीगी अलक, ना पलक,
ना बैचेनी, ना छटपटाहट,
ना तो भाव,
ना ही ठहरता स्वभाव,
निहारा नही सुरज और बंद रास्तो को,
महसूस ही नहीं किया,
चाँद की ठंडक, आत्मा कि रंगंत को,
छोटे से लम्हें में सतब्ध रह गए, भाव कही अन्तर्मन में, झिलमिलाते हुए मौन हो गए,
और अस्तित्व ही बचा नहीं,
क्यूँ ओझल हो गया वक़्त में॥
मेहा अनमोल दुबे - उज्जैन (मध्य प्रदेश)