पड़ताल - कविता - विक्रांत कुमार

कई तरह का चेहरा
हर रोज़ देखता हूँ 
कई मर्तबा देखता हूँ 
सोचता हूँ!
फिर लगता हूँ– ढूँढ़ने 
उस रंग-बिरंगे चेहरों में ख़ुद को
कई दिनों तक ढूँढ़ता हूँ 
खोजता हूँ!
ना जाने, कई चेहरों को तह तक पढ़ लेता हूँ 
चेहरे की चमक से
चेहरे की सिकुड़न से
मगर स्वंय को नहीं ढूँढ़ पाता
नहीं पहुँच पाता, उस वैचारिक प्रयोगशाल तक
जहाँ दिमाग़ स्वंय के चेहरे को पहचान सके। 

विक्रांत कुमार - बेगूसराय (बिहार)

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