मस्त मगन - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी

मस्त मगन मैं रहना चाहूँ,
ख़ुद में झर-झर बहना चाहूँ।

ख़ुद से ख़ुद का हाल बताऊँ,
ग़लत-सही का फ़र्क़ बताऊँ।
झिझक से कोसों दूर रहूँ,
कह लूँ, जो कुछ कहना चाहूँ।
मस्त मगन मैं रहना चाहूँ,
ख़ुद में झर-झर बहना चाहूँ।

मौन अधर रख बात करूँ मैं,
ख़ुद में सारा जज़्बात भरूँ मैं।
दूजे से कोई बात न बिगड़े,
बस ख़ुद से ही उलझना चाहूँ।
मस्त मगन मैं रहना चाहूँ,
ख़ुद में झर-झर बहना चाहूँ।

किसी के समक्ष अवरुद्ध न होऊँ,
और किसी पर क्रुद्ध न होऊँ।
ख़ुद से ख़ुद को समझना चाहूँ,
मस्त मगन मैं रहना चाहूँ।
ख़ुद में झर-झर बहना चाहूँ॥

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

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