पीड़ा सर्ग से - कविता - हर्षित अवस्थी 'मानस'

पीड़ा सर्ग से - कविता - हर्षित अवस्थी 'मानस' | Hindi Kavita - Peedaa Sarg Se
बढ़ रही व्यथा मन में,
एक छवि ने है हिलाया।
बैठ मेरे अंक में ही,
एक प्रिय ने विष पिलाया।

अब न हिलते अधर मेरे, 
बिक गई मुस्कान मेरी।
अब न होता प्रेम का मन,
शेष है पीड़ा घनेरी।

कर अकेले हमको तुमने,
जाके फिर दुःख को बढ़ाया।
बढ़ रही व्यथा मन में,
एक छवि ने है हिलाया।
बैठ मेरे अंक में ही,
एक प्रिय ने विष पिलाया।

तुम न हो अनुकूल मेरे,
जाके तुम चहुँओर बोली।
फिर दिखा सच रूप तेरा,
लिप्त कवि की आँख खोली।

फिर भी न संतुष्टि तुझको,
हमको मृत्यु से मिलाया।
बढ़ रही व्यथा मन में,
एक छवि ने है हिलाया।
बैठ मेरे अंक में ही,
एक प्रिय ने विष पिलाया।

खींच के ले गई उपवन में,
फल लगी मुझको खिलाने।
छोड़ मुझको तरु के नीचे,
जाके फिर तरु को गिराया।
बढ़ रही व्यथा मन में,
एक छवि ने है हिलाया।
बैठ मेरे अंक में ही,
एक प्रिय ने विष पिलाया।

हर्षित अवस्थी 'मानस' - बहराइच (उत्तर प्रदेश)

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