बढ़ चला तू जिस पथ
उस पर डग भरना
कठिन तो है
धूल भरे झंझावातों में
वह पथ
अदृश्य तो है
तपिश भी है
तपाने को तुझे
उस पथ
मृगमरीचिकाएँ भी हैं
किंतु न मंद पड़ना होगा
न रुद्ध होना होगा
नित प्रवाह में
उठते चलना होगा
विश्राम नहीं तुझे
अथक चलना होगा।
ध्वनि जो सुन रहा तू
जो आ रही क्षितिज से
जिस हेतु हृदय प्रगाढ़ हुआ
जो गूँज रही तुझ निज में
जिसे पा लेने को
तू हुआ तत्पर
जिसके लिए बढ़ चला
हो और विकल
उस लक्ष्य हेतु अब
मेघों-सा हो आच्छादित
बरसना होगा
विश्राम नहीं तुझे
अथक चलना होगा।
राज कुमार 'नीरद' - मेरठ (उत्तर प्रदेश)