भौतिकवाद, प्रकृतिवाद और हमारी महत्वाकांक्षाएँ - लेख - श्याम नन्दन पाण्डेय

सुदूर गाँव और जंगलों मे बैठा कोई बुज़ुर्ग व्यक्ति और उसका परिवार जो खेती बाड़ी करता है, गाय, भैंस और बकरियाँ चराता है, हाथ मे स्मार्ट फ़ोन नहीं, परिश्रम कर के, दाल रोटी खा कर सो जाता है और अगली सुबह फिर वही दाल या दही रोटी खाकर रोज़ के काम मे लग जाता है।
पैरों में चप्पल भी नहीं होते, छोटे मोटे काँटे टूट जाते हैं पैरों मे चुभते ही, परिश्रम कर के शरीर मज़बूत बनता है और अभ्यास से दिमाग।
उसने कोई महानगर और मैट्रो सिटी नहीं देखी, वो देखता है बछड़े और पिल्ले को जन्मते हुए, पशु-पंक्षियों को बतियाते हुए,
देखता है पशुओं को पगुराते हुए और चिड़ियों को दाना चुगते और घोषला बनाते और डूब जाता है ख़ामोशी में, कभी मन्द मुस्कुराते हुए, कभी कुछ चिंता और बेचैनी की सिकन लिए चेहरे और माथे पर।
उसका एक धर्म है प्रकृति के साथ रहना प्रकृति के साथ जीना, ख़ुद का और परिवार का भरण पोषण करना।
वो इतना जानता है कि धरती पर उसी की एक जात ऐसी है जो बोलता है, समझता है प्रतिक्रिया देता है, दूसरे जीवों और प्रकृति का संरक्षण कर सकता है 
जो जैसा हो रहा है वैसा होने देता है, प्रकृति में प्रकृति के साथ रहता और जीता है, वो चाहता है धरती सदा धरती बनी रहे उसका विज्ञान अलग है।
उसे क्या पता आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), स्पेस साइंस एंड टेक, रोबोटिक्स, चंद्रयान, मंगलयान, आधुनिक तकनीक, विज्ञान, ग्रेविटी, रोज़ आने वाले नए सॉफ्टवेयर और एप्प, अंतरिक्ष मलबा (अंतरिक्ष मे मौजूद 8000 टन से अधिक कचरे) और रूस यूक्रेन युद्ध और इन सब के प्रभाव।

उसे कोई फ़र्क़ नही पड़ता कि हज़ारों, लाखों और करोड़ो वर्ष बाद उसके वंशज धरती पर रहेंगे या चाँद अथवा अन्य किसी ग्रह पर जाकर बसेरा करेंगे।
उसके बच्चे पढ़े आस पास के प्राइमरी स्कूलों में, और पोते तो पढ़ रहे हैं इंग्लिश मीडियम और बड़े और महँगे स्कूलों में।
कच्चे और घास फूस के घर ईंट और कंक्रीट के घरों में बदल रहे हैं उसी के सामने।
उसके पुर्वजों ने जिया बहुत ही साधारण जीवन तकनीक और विज्ञान के बहुत पहले और इसके बिना और अब वो भी जीता है वैसे ही सामान्य ज़िंदगी।
नदिया, झरने पहाड़, जंगल सब के साथ यथा स्थिति रहता है  संयमित उपभोग भी करता है।
शायद वो देखा ही नहीं ख़्वाब बंगलों और गाड़ियों का, शॉपिंग मॉल्स में ख़रीदारी का।
खेती और चारागाह के लिए ज़मीन भी कम हो रहे हैं,
सामान के बदले सामान की प्रथाएँ लगभग ख़त्म हो गई महँगाई उसके घरों और रोज़ के ज़रूरत की चीज़ों में भी घुस गई।
नमक, माचिस और पानी के सस्तेपन पर नाज़ था अब वो भी ब्रांडेड हो गए।
दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियाँ, संस्कार, सत्संग और सज्जनता से अब पेट भी तो नहीं भरा जाएगा।
"हमे फ्यूचरिस्टिक और पैसिसनेट होना पड़ेगा।"

कुछ लोगों की महत्वाकांक्षाओं, जिज्ञासा और रुचि ने हमे हमारी ब्रह्मांड, धरती, जीवों और ख़ुद के अस्तित्व को जानने और समझने में मदद की और जीवन को आसान बनाया।
बहुत सारे पूरातत्ववादी, प्रकृतिवादी और वैज्ञानिकों ने पूरा जीवन लगा दिया इसे समझने में।
वर्ष 1700 के अंत तक अधिकांस लोगों का यही मानना था कि पृथ्वी 6000 वर्ष पुरानी है।
चार सौ वर्ष पहले जर्मन जियोरजियस एग्रिकोला दुनिया के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने खनन के काम को वैज्ञानिक नज़र से देखा। उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी खदानों में बिताई और ज़मीन के नीचे से निकले खनिजों का अध्ययन किया।
फ्रेंच प्रकृतिवादी और जीव वैज्ञानी जौरसिस कूवये ने जीवो और पौधों का वर्गीकरण किया।

स्विटजरलैंड में एक वैज्ञानिक थे जिनका नाम था गैसनर उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं जिसमें उन्होंने प्रकृति में पाई जाने वाली सभी चीज़ों का वर्णन किया। गैसनर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने फॉसिल (जीवाश्म) के चित्र बनाए।

गैसनर ने विभिन्न पौधों और जानवरों को अलग-अलग समूहों में रखा। कुछ जानवर अन्य जानवरों से मेल खाते हैं और कुछ पौधे अन्य पौधों से मिलते-जुलते हैं। शेर, चीते और बिल्लियाँ एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं वहीं लोमड़ी, भेड़िए और कुत्ते भी एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं। गाय-भैंस, भेड़ और बकरियों के खुर होते हैं और वे सभी घास खाते हैं और एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं।

उदाहरण के लिए सींग और खुर ज़्यादातर पौधे खाने वाले (शाकाहारी) जानवरों में पाए जाते हैं। किसी माँसाहारी जानवर के सींग और खुर नहीं होते। माँसाहारी जानवरों के विशेष प्रकार के दाँत होते हैं जो शाकाहारी जानवरों में नहीं होते। कूवर्य की खोज के अनुसार हम किसी जानवर के शरीर के छोटे से भाग से मात्र एक दाँत से भी उस जीव के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं।
पृथ्वी पर उपस्थित और विलुप्त सभी जीवों को उनके गुणधर्मों के आधार पर प्रजाति (स्पेसीज) और वंश (जीनस) में बाँटे जिनसे उनके अध्ययन में आसानी हुई।
स्वीडिश प्रकृतिवादी कैरोलस लीनियस ने प्रत्येक पौधे और जानवरों को दो लैटिन शब्दों का नाम दिया जिसमें पहला शब्द उसके वंश (जीनस) और दूसरा उसके प्रजाति (स्पेसीज) को दर्शाता हैम
स्तनपायी (मैमल्स) सरीसृपों (रेप्टाइल), पंक्षी और मछलियाँ स्पेसीज का पता लगाया जा सका और इनका अध्ययन आसान हुआ।
लाइलाज बीमारियों के इलाज मिले बीमारियों का डाइग्नोसिस और उपलब्ध मेडिसिन और उपकरणों से उम्र बढ़ी, हाई स्पीड वाहनों से दूरियाँ कम हो गईं, टेलीफ़ोन और स्मार्ट फ़ोन से कम्युनिकेशन बढ़ा।

पर "अति हर चीज़ की बुरी होती है" असल में हम आदी हो गए दवाईयों के, हर काम जल्द ख़त्म करने के, और मोबाइल फ़ोन्स के। चार लोग इकट्ठा बैठे तो होते हैं, पर एक दूसरे से बात करने, कुशल क्षेम पूछने और हंसी मजाक करने के बजाय व्यस्त होते हैं अपने अपने फ़ोन में। दुःख की बात तब और होती है जब हम चार लोगों में एक के पास फ़ोन ही न हो या उसके पास जो फ़ोन है वो स्मार्ट न हो वो बिल्कुल अकेला हो जाता है।
जैसे ही मेडिकल साइंस और हेल्थ केयर विकसित हुए उसी अनुपात में नई बीमारियाँ भी बढ़ी, दूरियाँ समय कम करने के होड़ में हाई स्पीड और यातायात नियमों के न पालन की वजह से सड़क दुर्घटनाएँ भी बढ़ी।

अब हम बहुत आगे निकल आए मशीनों और उपकरणों से घिरे हैं। हमारी इच्छाएँ अति में बदलने लगी हैं, खेतों में आवश्यकता से अधिक खाद और कीटनाशक डालने लगे, परिवार में हर सदस्य को चलने के लिए ख़ुद की गाड़ी चाहिए, हाथ पैर न चलाना पड़े इसलिए हर काम को करने की मशीन, खाद केमिकल्स और दवाईयाँ उपचार के लिए नहीं बल्कि व्यापार के लिए बनाई जा रही हैं।
हम रोज़ थोड़ा-थोड़ा ज़हर खा रहे हैं, खेतों में केमिकल्स और रासायनिक खादों की बोतलें और पैकेट्स के ढेर लगे होते हैं।
कंपनियाँ दुकानों बाज़ारों के साथ-साथ गाँवों तक जाकर मार्केटिंग और सेल करती हैं अपने प्रोडक्ट को।
फिर इन ज़हर से उत्पादित उत्पाद भी हमारे ही हिस्से आता है जबकि समृद्धि और कंपनियों के मालिक IPM, ऑर्गेनिक और नेचुरल उत्पाद ही खाते हैं।
हमारी अति महत्वाकांक्षाओं की वजह से प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है जिसकी वजह से पर्यावरण व ज़मीन पर पड़ रहे दुष्परिणाम के नतीज़े का भुक्तभोगी ये सीधे साधे लोग भी होंगे जो जाने अनजाने में कभी भी प्रकृति के नियमो के विरुद्ध नहीं गए और प्रकृति के साथ जीवन यापन कर रहे हैं। 
घरो और दफ़्तरों में एसी और कारों से पेट्रोल, डीजल और गैस के दोहन के साथ-साथ पर्यावरण को नष्ट कर रहे हैं। पृथ्वी पर प्लास्टिक और अन्य अनावश्यक कचरे का नया हिमालय खड़ा कर रहे हैं।

प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन सीमित संसाधनों में कमी के साथ-साथ पर्यावरण को भी छति पहुँचा रहा है।
पृथ्वी पर मौजूद कुल संसाधनों का 40-45 प्रतिशत हिस्से का उपभोग सिर्फ़ 2-3 प्रतिशत लोग कर रहे हैं।
प्राकृतिक संसंधनो पर सम्पूर्ण मानव जाति और अन्य जीवों का समान अधिकार है।
"प्रत्येक मानव निर्मित उत्पाद प्राकृतिक संसाधनों से ही बना होता है"
इन जैविक अजैविक संसाधनों को बनने में लाखों वर्ष लगे,
ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस शदी अर्थात अगले 50 से 120 वर्षों में तेल कोयला और प्राकृतिक गैस समाप्त हो जाएँगे।
डेवलपमेंट और आधुनिकीकरण के नाम पर पिछड़े और कमज़ोर लोगों का हक़ और संसाधन छीना जा रहा है ये सब सिर्फ़ उन्हीं 5 से 10 प्रतिशत लोगों के लिए है।
हमारी छुधा और तृष्णा है कि भरती ही नहीं है।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम से कम करना चाहिए।

हमें अपने कमाई का कुछ हिस्सा उनके लिए ज़रूर रखना चाहिए जो पिछड़े है, जाने अनजाने में जिनका हक़ हमने कन्ज्यूम किया और जिन्हें हमारे सहारे की ज़रूरत है।

श्याम नन्दन पाण्डेय - मनकापुर, गोंडा (उत्तर प्रदेश)

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