नियम, जपतप में लगे हुए,
दिव्य शांत स्वरूपा,
मेहा बन फुलों पर सो गई या मौन में सदा के लिए तल्लीन हो गई,
दृष्टिकोण में तो सब जगह हो गई माँ, पर दृश्यों और दृष्टि से लगता है, प्रत्यक्ष कहाँ खो गई?
हलचल तुम्हारी क्यो मौन हो गई?
दिया जो जलाऊँ तो लगता है तुम आओगी,
जो मौन हो जाऊँ तो लगता है तुम आओगी,
बैठोगी सिरहाने मेरे, अपने हाथों से बालो को सहलाओगीं,
हृदय जो दुःख से भरे लगता है, नई रोशनी दे जाओगी,
पर ये संवाद कहाँ माँ, मुझे आसक्त कर, दुनिया से परे वैराग्य ले, अविरल हो परम मौन में खो गई।
मेहा अनमोल दुबे - उज्जैन (मध्यप्रदेश)