प्यारी माँ - कविता - मेहा अनमोल दुबे

प्यारी माँ!
तुम बहुत याद आती हो,
जब दिन ढलता है,
जब नवरात्र का दिपक जलता है,
जब साबुदाने खिचड़ी कि ख़ुशबू उडती है,
जब हृदय मे पीड़ा होती है,
जब आस नहीं दिखती है,
मृगतृष्णा सी होती है,
लगता बस थोड़ी देर मे कहीं दिख जाओगी,
अगले ही पल माँ मिल जाओगी,
फिर कहोगी क्या पहना है?
कभी मैचिंग मे दिख जाया कर,
बालों मे तेल लगाया कर,
थोडा ढंग से जमाया कर,
खाना समय से खाया कर,
एक जगह टिक जाया कर,
कपड़ों पर प्रेस घुमाया कर,
चल तुझको कुछ पसन्द का दिला दूँ,
ज़्यादा चिंता मत किया कर,
थोड़ा ख़ुश रहा कर,
चल कुछ अच्छा सा बनाकर खिला दे,
तेरे हाथ कि पावभाजी ही चखा दे,
साम्भर का बघार कहाँ से सीख आई,
ले टमाटर किचटनी बना दे,
मत जाया कर मुझे छोड़ अकेले,
तेरे बिना सब सुना हो जाता है,
तेरी बहुत बस्ती है,
बैठ मेरे पास थोड़े भजन सुना दे,
या हेमंत कुमार के गाने लगा दे,
मेरी प्यारी मुन्नु से
मेरी समझदार मुन्नु तक,
जब समय मिले बात करा कर,
तुझसे बात करके झंझट दुर हो जाते,
सुकून सरोवर का कोना तू,
लगता तू सब देख लेगी
और जाने कितनी अनगिनत बातें थीं,
बस अब केवल बातें है,
बहुत याद आती है माँ साँझ कि चाय
और मज़ेदार क़िस्से।

मेहा अनमोल दुबे - उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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