नाव - कविता - नौशीन परवीन

किस ओर जा
रहीं ये नाव
जहाँ घाव पुराना हैं
उस ओर बहती 
जा रहीं नाव
झिलमिलाती धूप में
झूठी और सच्ची
कहानी लिए 
हज़ारों ख़्वाहिशों
को ढोते चली जा 
रहीं नाव,
अपनी चुनरी को
कभी ओढ़ते कभी
नाव में बिछाते 
मोरनी चालो से
नाचती-गाती
अपनी कुछ 
भावनाओं को लिए
मैं भी नाव संग
बहती जा रहीं हूँ।

नौशीन परवीन - रायपुर (छत्तीसगढ़)

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