औरत - कविता - डॉ॰ आलोक चांटिया

बड़ी अजीब सी बात है
कि उसके जीवन में 
आज भी वैसी ही रात है 
कहते तो यह भी है कि 
वह जैसे चाहे जी सकती है 
जहाँ चाहे रह सकती है 
अब आसमान के पार तक 
उसके लिए खुलापन है 
वह किसी की ग़ुलाम नहीं है 
किसी के पैर की जूती भी नहीं है 
वह औरत है जो आदमी के 
साथ पूरे-पूरे बराबर है 
पता नहीं क्यों यह एक 
झूठी ख़बर है आज भी वह 
कछुए की तरह जीने के लिए 
ख़ुद अपने को अपने 
खोल में समेटे रहती है 
पर हर क़लम हर इबारत 
हर काग़ज़ उसे औरत देवी 
न जाने क्या-क्या कहती है 
क्या आपको मालूम है कि 
आदमी की तरह पूरी 
बराबर वाली औरत इस 
दुनिया में कहाँ रहती है?

डॉ॰ आलोक चांटिया - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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