उसकी मर्ज़ी के मुझे क्या बख़्शे - गीत - सिद्धार्थ गोरखपुरी

दुआ बख़्शे या बद-दुआ बख़्शे,
उसकी मर्ज़ी के मुझे क्या बख़्शे।
बख़्शने में वो मुझे न बख़्शेगा,
अर्ज़ ये है के कुछ नया बख़्शे।

ज़माना नया फ़साना तैयार कर देगा,
बिन-हया शब्दों को औज़ार कर देगा।
ज़माने के जद में कभी हद न रहे,
हद! जद में रहे तो फिर हया बख़्शे।
दुआ बख़्शे या बद-दुआ बख़्शे,
उसकी मर्ज़ी के मुझे क्या बख़्शे।

उसकी फ़ितरत बदली है अभी,
उसकी आदतें कहाँ सम्भली है अभी।
अभी आदतन नादान है वो,
इल्म नहीं है के कब, क्या, कहाँ बख्शे।
दुआ बख़्शे या बद-दुआ बख़्शे,
उसकी मर्ज़ी के मुझे क्या बख़्शे।

मेरी शिकायतें आजकल चर्चे में है,
उसे संभाले कोई बहुत ख़र्चे में है।
ख़र्च डालें हैं लोगों ने भरोसे अब तो,
कोई थोड़ा तो भरोसे का वाक्या बख़्शे।
दुआ बख़्शे या बद-दुआ बख़्शे,
उसकी मर्ज़ी के मुझे क्या बख़्शे।

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos