विरह वेदना - कविता - राजेश 'राज'

कैसे लिख पाऊँ
मैं विरह वेदना?
ख़ामोशियाँ बेशुमार
कुछ लिखने की नाकाम कोशिशें
अंतर्मन में सुलगती विरह अग्नि से
उठता अदृश्य धुआँ
मीलों न कोई संवेदना
उकेरें तो उकेरें कैसे?

नज़रें शून्य में टिकीं
अवलोकन करने में जुटी
झपकने का नाम नहीं
इतनी तन्मयता से डटीं
प्रियतम की राह में तल्लीन
अविराम पुकारतीं
कहाँ हो? कब आओगे?

अस्तव्यस्त लिबास
बेसुध बदहवास
सूने-सूने हृदय में
मिलन का लास्य 
तूलिका विहीन
पर रंगहीन को रंगीन करने का
कैनवास, किधर है? कहाँ है?

चहुँओर पसरी तन्हाई
हटेगी शायद
विरह में रोते बादल
छटेंगें शायद
काँटों भरी रात भी
गुज़र जाएगी शायद
पुनर्मिलन की आस से
सजल हो उठेगी शुष्क आँखें
अप्रमेय प्रेम खिल उठेगा
स्वप्निल निकुंज में
छा जाएगा निखार तब
नियति के परिवेश में॥

राजेश 'राज' - कन्नौज (उत्तर प्रदेश)

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