वक़्त का परिंदा - कविता - जयप्रकाश 'जय बाबू'
मंगलवार, जनवरी 31, 2023
वक़्त का परिंदा आया, ना जाने किस देश से हो,
यह सिखलाए सत्य ईमानदारी प्रेम का वेश हो।
एक ही देश है, एक ही राग, एक ही गान हमारा,
एक ही लहू है, एक ही प्राण, एक ही मान हमारा,
एक ही धरा है, एक ही चाँद, एक ही सूरज तारा।
सिखलाए परहित में त्याग, ज्ञान का दे उपदेश हो,
वक़्त का परिंदा आया, ना जाने किस देश से हो।
जिसकी ख़ातिर लड़ते हो, सब यही है रह जाना,
साँसों के छूट जाने पर किस काम का ये खजाना,
ये जीवन है माटी का पिंजर बूँद पड़े गल जाना।
यश की नैया एक सहारा चिरकाल धरे वेश हो,
वक़्त का परिंदा आया, ना जाने किस देश से हो।
क्यों लड़ते हो बंधु मेरे एक ही अभिमान हमारा है,
ना तेरा है यह ना मेरा है, यह हिंदुस्तान हमारा है,
आ मिलके करे रखवाली यह गुलिस्तान प्यारा है।
यम की फाँस लगी जब, सुगना उड़ जहिहे परदेश हो,
वक़्त का परिंदा आया, ना जाने किस देश से हो।
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