माँ के आँचल में ज़रा सा ठहर के देखें - ग़ज़ल - दिलीप वर्मा 'मीर'

अरकान : फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन मफ़ऊलु
तक़ती : 2122  1212  221

माँ के आँचल में ज़रा सा ठहर के देखें,
जन्नत वहीं है ज़रा दिल में उतर के देखें।

बे-हिसाब चश्म-ए-तल्ख़ाब पी कर के देखें,
ज़िंदगी जहन्नुम हो जाएगी बे-शजर के देखे।

इश्तियाक़ नहीं मुझे किसी मह-ए-कामिल की,
ख़्वाहिश यहीं कि कोई मुझे नज़र भर के देखे।

नहीं बुझ सकीं बातिन किसी के सब्र-ए-दस्त के,
फूट के रो दूँगा ज़रा ज़िकर उनका कर के देखे।

कौन आश्कार करता है अपने दर्दे-ए-दिल का,
कैसे जीतोगे ये बाजी-ए-इश्क़ बे-हूनर के देखे।

हिज़ाब कैसा ' मीर ' ये तेरे मेरे इस शानासाई में,
अल्लाह ज़रा फ़ैज़-ए-ज़ल्वा-ए-ग़र के देखे।

दिलीप वर्मा 'मीर' - सिरोही (राजस्थान)

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