वो बचपन कितना सुंदर था,
संग संग मित्रों की टोली थी।
हर दिन दिवाली जैसा लगता,
हर शाम तो जैसे होली थी॥
संग-संग खेलते लड़ते थे,
मन में वैर न रखते थे।
ग़लती होने पे माफ़ी माँगने से,
कुछ भी संकोच न करते थे॥
संग-संग उनके पढ़ते थे,
दिन कितने सुहाने होते थे।
कोई सुर ताल से न मतलब,
पर सुंदर से तराने होते थे॥
सारी ज़िद पूरी हो जाती,
जब ज़िद करके रोते थे।
वो नींद सुकून की होती थी,
जब माँ के आँचल में सोते थे॥
अनूप अंबर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)