ठंड की मिठास - कविता - रविंद्र दुबे 'बाबु'

ठंडी सिहरन शाम शहर से,
तन मन ठिठुरे घर आँगन भी।
तेज़ किरण लालिमा भाती,
सूरज जागे देर, जल्द शयन भी॥

ओस की बूँदें हल्की-हल्की,
मोती बनकर चमके चमचम।
धरती का शृंगार ये करती,
चितवन भरती मध्यम हरदम॥

धुँध क़हर से ढक जाए धरती,
उजला करती वन सड़क भी।
जल्दी सोते, ना उठते हम सब,
धरती हो जाए सर्द कड़क भी॥

हाथ भी आग पकड़ने व्याकुल,
कट-कट दाँत संगीत निकले।
कंबल चादर तान शरीर पर,
बाबु के संग 'बाबू' लिपटे॥

बड़ी सुहानी शीतल मनोहर,
ठंड सुहाए मस्ती करती।
घर परिवार को साथ समेटे,
पल में सम्बंध का भाव भरती॥

रविन्द्र दुबे 'बाबु' - कोरबा (छत्तीसगढ़)

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