विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)
काश कि बचपना होता - कविता - विनय विश्वा
मंगलवार, दिसंबर 27, 2022
एक वह गोली थी
जो बचपन का
हिस्सा हुआ करती थी
एक यह गोली है
जो शासन की बंदूक से
निहत्थे को
छलनी कर देती है
कितना फ़र्क़ है
है ना बचपन और सयाने में
काश कि बचपना होता सयाने में!
कि जैसे खेल रहे थे गोली
गाँवों में!
एक कवि की अल्हड़ता है
बचपना, गाँव, नगर, नागरी
की सरसता है
यह गाँव की कौड़ी है
दिल्ली की दंडी नहीं।
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