याद रहेगी सर्द मौसम की ये सरगोशियाँ जो कानों पर छोड़ रही हैं दस्तकें,
फिर भी क्यूँ इक सूरज चाँद से मिलकर पिघल जाता हैं दिसम्बर के महीने में।
दिसम्बर में जयपुर की ये भी ख़ूबसूरती हैं सर्द-ओ-धुँधली राहों में,
इन बे-सम्त हवाओं में तेरा बंसती एहसास मुस्कुराता हैं मेरे ज़ेहन में।
आजकल मेरे ख़्यालात में सिर्फ़ तू हैं आबाद,
तेरे मासूम चेहरे की ही आती हैं फ़क़त याद,
प्रकति भी दे रही तेरी तिश्नगी को शबनम का स्वाद,
लगता हैं तेरे नरम-नरम रुख़सारों से ही खिला हैं ये आकाश।
कैफ़ियत रंगीं, फ़ज़ा में कोहरे की रंगत, लबों पे छाई तबस्सुम हैं,
हज़ारों मिन्नतों बाद अँधेरे को चराग़ मिला,
पिता के घर में गूँज रही मुसलसल तरन्नुम हैं।
कुदरत ने भी क्या ख़ूब कन्दा दिया हैं तेरे रूप को,
दिसम्बर में राजधानी बस तेरी झपकती पलकों से ही रौशन हुआ करती हैं।
दिसम्बर के महीने में जब उजली सुबह कोहरे के आँचल से मुँह निकालती हैं,
कवि की दुनिया एक बार फिर तूझसे मिलने को बेताब हो जाया करती हैं।
कर्मवीर सिरोवा 'क्रश' - झुंझुनू (राजस्थान)