बुद्धि और श्रद्धा - कविता - ईशांत त्रिपाठी

बुद्धि जो संशय रोगी हो,
जिज्ञासु हो बहु बोधी हो।
तिन बुद्धि के प्रश्न हो नाना,
प्रश्न पे प्रश्न जन्मते जाना।
ज्ञान गति इन प्रश्नन की हो,
तब निर्मल चित् आनन्द की हो।
दिव्य ज्ञान भंडार युक्त उर,
श्रद्धा से सुरभित जो भरपूर।
ऐसे मन के प्रश्न हो स्वाहा,
सुविवेक सत् असत् को भाना।
श्रद्धा की गति प्रभु रति को चाहे,
पुण्य अमृत नित्य विपुल हो बाढे़।
बुद्धि और श्रद्धा का नियामक,
भ्रमित मन बने स्वकर्ता नामक।
श्रद्धा जननी विश्वास पिता है,
जिनके बल हरि-स्नेह मिला है।
बुद्धि जड़-चेतन में भटके,
श्रद्धा रमे हरि नाम को रटके।
हरि गाऊँ, हरि ध्याऊँ,
हरि में ही रंग जाऊँ।
मैं तो हरि की, हरि जी मेरे,
हरि कह गए यह बहु बेरे।
जय गोविन्द जय गोपाल,
माधव सुन्दर स्नेह कुमार।

ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्यप्रदेश)

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