बचपन की एक रात - कविता - इमरान खान

बचपन की एक रात मुझे पुकारती हुई।
जुगनुओं की रोशनी में,
भीगती हुई सैंकड़ों बूँदें।
सफ़ेद चादर बर्फ़ की,
चंद्रमा की काली रोशनी में।
पंचम राग गाती हुई,
घोड़े की टाप से आती हुई आवाज़।
सीप में मोती सी खनकती,
भैरव राग गाती हुई।
लालटेन के चारों ओर,
धुँधलाते हुए धुएँ में,
पुकारती हुई आधी रात की जवानी।
टिमटिमाते हुए तारों में,
घूँघट की ओट लिए,
हाथ से छूते ही,
दूर कहीं कोई गाती हुई शास्त्रीय संगीत।
बेग़म अख़्तर की आवाज़ में।
बचपन की एक रात मुझे पुकारती हुई।
बीस साल बाद
मैं उस बचपन की रात को याद करता हुआ।
बेग़म अख़्तर की आवाज़ में।
"वो जो हममें तुममें करार था"
पूरे शबाब पर
खनकती हुई झील में 
वो मधुर आवाज़ गूँजती है चारों ओर।

इमरान खान - नत्थू पूरा (दिल्ली)

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