हाज़िर हूँ मैं पलक बिछाए,
तेरी ही अभिनंदन में।
शुभगे! बाँध लिया है तुमने,
मुझे प्रीति के बंधन में॥
नीरस जीवन था तब मेरा,
मारा-मारा फिरता था।
आकर्षण था नहीं किसी का,
पग-पग खाईं गिरता था॥
सुषुप्त थी गीतों में सुर लय,
चँहक उठी स्पंदन में।
शुभगे! बाँध लिया है तुमने,
मुझे प्रीति के बंधन में॥
तेरी संस्कृति रूप रंग से,
सभ्यता का सुवास हुआ।
मधुमय तेरी अधरों से भी,
गीत सुखद अहसास हुआ॥
छुईमुई सी लाज हया ने,
भाव भरी अवगुंठन में।
शुभगे! बाँध लिया है तुमने,
मुझे प्रीति के बंधन में॥
मृगनयनी सरला मितभाषी,
तू तो सरल बना डाली।
झुका हुआ हूँ उपकारी सा,
जैसे गदराई डाली॥
विनम्र जीवन सहज कटेगी,
अब तो तेरी वंदन में।
शुभगे! बाँध लिया है तुमने,
मुझे प्रीति के बंधन में॥
संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)