वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई - कविता - राघवेंद्र सिंह

स्वाभिमान के रक्त से रंजित,
हुई धरा यह प्रिय पावन।
हिला हुकूमत का सिंहासन,
और हिला सन् सत्तावन।

राजवंश की शान थी जागी,
जाग उठा वीरों का रव।
झाँसी का कण-कण था जागा,
जाग उठा रानी गौरव।

जाग उठी बरछी कृपाण वह,
सोई वह तलवार उठी।
जाग उठी वह रण की लक्ष्मी,
मर्दानी वह धार उठी।

अरि का मस्तक लगी काटने,
शौर्य, तेज़ की चिंगारी।
मातृभूमि की बनी दिवानी,
पड़ी शत्रुओं पर भारी।

लगे काँपने सभी फिरंगी,
घोड़े की जब टाप सुनी।
जगी सिंहनी वह क्षत्राणी,
दुर्गा, काली आप सुनी।

शिशु बाँधकर पीठ पर अपने,
दुश्मन को ललकार रही।
निज दहाड़ और राष्ट्रप्रेम से,
अंग्रेजों को मार रही।

छली गई अंग्रेजों से वह, 
अंग्रेजों से घिरी रही।
रही काटती सिर पर सिर वह,
आत्म शौर्य से भरी रही।

किंतु कालगति ने उसको,
अंत समय में घेर लिया।
मस्तक कटा आँख थी निकली,
समय ने मुख भी फेर लिया।

एक अकेली रानी पर फिर,
होने लगे वार पर वार।
वीरगति को प्राप्त हुई वह,
तुरंत गई वह स्वर्ग सिधार।

धरा रक्त से हुई विकल वह,
आँखों में अश्रुओं की धार।
मातृभूमि रानी को खोकर,
करने लगी वह जय जयकार।

झाँसी की माटी पर हर पल,
हमें सदा विश्वास रहेगा।
जब जब शौर्य लिखा जाएगा,
रानी का इतिहास रहेगा।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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