गमले में बोई ग़ज़लें - कविता - रमाकान्त चौधरी

जाने कितनी घास उगी थी
उन यतीम गमलों में 
जो रखे थे छत की मुंडेर पर। 
ख़र्च कर दी मैंने काफ़ी एनर्जी
उन्हें साफ़ करने में। 
और फिर मैंने बोई उनमें 
कुछ अपनी ग़ज़लें
कुछ कविताएँ
बहुत सारी भावनाएँ।  
उन्हें सींचा 
अपने ख़ुशी के आँसुओं से
और पोषक तत्व दिए
संवेदनारूपी खाद से। 
अंकुरित हुई
कुछ प्यार भरी शायरी
कुछ दर्द भरी रुबाइयाँ। 
समय शनैः शनैः बढ़ा
लहलहा उठे 
मेरी ग़ज़लों के पौधे
कविताओं के पेड़। 
जिसको जैसा अच्छा लगा
तोड़ कर ग़ज़लें
कविताएँ
सजा लिया अपने होठों पर
कुछ कच्ची कुछ अधपकी 
मेरी ग़ज़लें
मेरी कविताएँ। 
अब उन गमलों में
हर कोई बोना चाहता है
अपनी ग़ज़लें
अपनी कविताएँ। 
जिनमें मैंने बोई थी
अपनी ग़ज़लें
अपनी कविताएँ। 
डर है फिर से कोई 
न कर दे यतीम
उन गमलों को। 
फिर से न उग जाए
उनमें जंगली घास । 

रमाकांत चौधरी - लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos