आसमाँ का समंदर - कविता - सुनील कुमार महला

कभी छत पर जाकर देखना
आसमान का समंदर
टिमटिमाते बुदबुदाते असंख्य तारों के बीच
कभी तुम झाँकना
मन प्रफुल्लित न हो जाए तो बताना
राहत की साँस न मिले तो बताना
मुझे पता है कि
शहर में ऊँची अट्टालिकाओं के बीच
फैक्ट्रियों, चिमनियों से निकलते अथाह धुएँ के गुबारों के बीच
घनघनाने ट्रैफ़िक के शोर के बीच
माना कि समय नहीं मिलता
लेकिन फिर भी कभी देखना तुम
टूटते तारे की हँसी दूर तलक
जीवन को जैसे साथ लेकर चलता हुआ
फिर यकायक
बुझ जाता है शून्य में कहीं
आना जाना लगा रहता है सृष्टि चक्र में
वो देखो
भटके हुए पंछियों का एक समूह
ढूँढ़ रहा है अपना आसियाना
तुम भी तो ढूँढ़ने का सार्थक प्रयास करना
इस चकाचौंध भरी ज़िंदगी में
ढूँढ़ ही लो तो अच्छा है
नीले आसमान की फैलती चादर को
जीवन का कारवाँ यूँ ही गुज़र जाता है
तुम क्षितिज पर छोड़ आना
अपने क़दमों के निशाँ
अठखेलियाँ करना चन्द्रमा की कलाओं संग
दिनभर मार्तंड की तपन में
तुम क्या तपते नहीं हो?
सुकून के दो पल
बैठ जाना, बतियाना ब्रह्मांड में तैरती निर्विकार
शक्तियों संग
लुत्फ़ उठा लेना प्रकृति की रसभरी शीतल बयार का
कुटुंब, मोहल्ले से ज़रा-ज़रा बाहर तो निकलना
तालमेल बिठा लेना, रिश्ता जोड़ लेना
बन जाना फ़क़ीर
आकाशगंगाओं की सर्पिली पंगड़डियों पर भी कभी घुमाना अपनी पैनी नज़र
फिर मन के विकार सारे न छूट जाएँ तो कहना
तमस की बुनियाद जो
इस सांसारिक यात्रा में होती है महसूस
टिमटिमाते, जगमगाते तारों में घुल न जाए ये तमस
तो कहना
अर्थ लोलुप बनकर एड़ियाँ न जमा लेना
इस संसार में
तुम्हारी चेतना का विस्तार न हो जाए तो कहना
पर मैं जानता हूँ कि
तुम्हारे लालच के पहिए टस से मस नहीं होंगे
तुम प्रकृति के गीतों को गुनगुनाना नहीं चाहोगे
क्योंकि
तुम्हारी साँसों में
तुम्हारी रगों में
तुम्हारे संकल्पों में
हर कहीं रवाँ-रवाँ पदार्थवादी होने का घोड़ा दौड़ रहा है
और
तुम अवश्य ही डुबो लोगे
अपने हिस्से का आकाश...!

सुनील कुमार महला - संगरिया, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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