प्रेम और उसकी यादें - कविता - मयंक मिश्र

प्रेम...
वही जिसके सिर्फ़ उदाहरण 
होते है,
क्योंकि
प्रेम की नहीं होती हैं
परिभाषाएँ!
जैसे,
मेंढकों को 
बोलने के लिए
ज़रूरी होती है बरसात!
वैसे ही,
क़लम तो हूँ मैं;
लेकिन
काग़ज़ की तरह कमी है उसकी,
ताकि 
अपने भाव 
उकेर सकूँ!
पत्थर तो हूँ मैं;
बस उस नदी की तरह
कमी है उसकी,
जिसमें आमूल डुब सकूँ!
नित सुबह-शाम की
आभास है वो,
जिसे प्रातः ही अपने
हाथों की अंजलि में 
चितेर लेता हूँ!
क्योंकि,
अनुपस्थिति में भी
साथ बनी हुई
आत्मीय उपस्थिति ही 
तो प्रेम है!

मयंक मिश्र - अजमेर (राजस्थान)

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