मैं वृक्ष वृद्ध हो चला - कविता - राम प्रसाद आर्य

फूलना-फलना था जो,
दिन व दिन कम हो चला।
वृद्धपन बढ़ता चला,
यौवन का जोश अब ढँला।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

हर पात पीत हो चले,
कली हर सिकुड़ चली।
पुष्प रंग खो चले,
हर शाख शुष्क हो चले।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

छाया भी अब सिमट चली,
काया की कान्ति घट चली।
स्नेह से निहारती, जो
जग-दृष्टि वो पलट चली।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

बोए जो बीज, वृक्ष बन,
पीठ अब पलट चले।
सुसंस्कृति, सुनीति तज,
महज़, अब स्वार्थ नीति रट चले।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

कहे का कोइ न मोल अब,
कपोल अब धंस चले।
नयन ज्योति मंद अब,
बाँह हो विवस चले।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

सुस्त धमनियाँ हुई,
रक्त जनन घट चला।
हरापन शनैः-शनैः,
श्वेत पन से पट चला।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

रंग, रस सकल झरा,
उमंग-जंग घट चली।
बुद्धि मंद हो चली,
इच्छाएँ हो प्रकट चली।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

बात में वो बल नहीं,
जज़्बात की पहल नहीं।
मेरे जने ही कह रहे,
मुझ बुद्ध, अब अकल नहीं।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

कर कुल्हाड़ ले खड़ा,
जो काटने मुझे चला।
मुझसे ही पा जीवन, मेरे
क़ातिल तेरा भी हो भला।

मैं वृक्ष वृद्ध हो चला॥

राम प्रसाद आर्य - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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