शीश महल - कविता - संजय राजभर 'समित'

पारदर्शी हो 
जो कुछ न छुपाता हो 
अंदर बाहर एक समान 
एक खुली किताब की तरह। 
जैसे–
आत्मा 
जिसमें न घात न प्रतिशोध हो 
केवल प्रेम हो 
दया परोपकार हो 
सकारात्मक चिंतन हो 
जो ह्रदय में है 
वही कर्म में हो 
सब कुछ स्पष्ट 
जैसे–
शीश महल।

संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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