ये लताएँ कैसी
जिन्हें बढ़ता देख
बाग़बान चिंतित है
हर पल सेवा की जिसकी
वे फूलों सी लताएँ
काँटों सा क्यों चुभती
लताएँ ये ऐसी
जिन्हें धन देकर बेचा जाता
बदले में बाग़बान तन्हा
ये सोच-सोच घबराता
कहीं दूजी ज़मीं बंजर न हो
और दूजे बाग़बान के हाथ
कहीं ख़ंजर न हो?
डॉ॰ रोहित श्रीवास्तव 'सृजन' - जौनपुर (उत्तर प्रदेश)