कुछ तो पीर पराई लेकर
चलना सीख गया हूँ मैं,
ज़माने की अनेक रुसवाई लेकर
चलना सीख गया हूँ मैं।
तुम जान सके थे न जानोगे,
बस सब कुछ झूठा मानोगे।
ख़ुद के अंदर तन्हाई लेकर
चलना सीख गया हूँ मैं,
कुछ तो पीर पराई लेकर
चलना सीख गया हूँ मैं।
दिन की सारी थकान लिए,
कुछ एक समाधान लिए,
शाम के साथ आहिस्ते से
ढलना सीख गया हूँ मैं,
कुछ तो पीर पराई लेकर
चलना सीख गया हूँ मैं।
दुनिया के हैं रंग अनेकों,
मिलने-मिलाने के ढंग अनेकों,
दुनिया को समझ गया जबसे
थोड़ा बदलना सीख गया हूँ मैं,
कुछ तो पीर पराई लेकर
चलना सीख गया हूँ मैं।
सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)