संवेदनहीन हुआ मानव तो ख़त्म हुईं सब आशाएँ,
समझ नहीं पाया यह मानव मेरे मन की अभिलाषाएँ।
अभिलाषा थी वीरों के पाँव तले बिछ जाने की,
देश पे जान लुटाने की और देश के हित मिट जाने की।
पर निष्ठुरता मानव की देखो मेरी पीड़ा समझ न पाया,
जब चाहा प्रेयसी के गजरे में लगा ख़ूब ही इतराया।
चोर उच्चके और लुटेरों पर भी मुझे लुटा डाला,
कभी कभी तो देशद्रोहियों के चरणों में मुझे बिछा डाला।
मुझे चढ़ा कर भगवानों पर मन चाहा वरदान लिया,
किंतु सदा प्रसन्न रहा मैं सदा सब्र से काम लिया।
टूट गया तब सब्र मेरा जब ऐसे भी अपमान हुआ,
मेरी माला गले डाल जब दुष्कर्मी का सम्मान हुआ।
इस तिरस्कार से अच्छा है अपना अस्तित्व मिटा डालूँ,
या खिलने से पहले माली से कह अपना शीश कटा डालूँ।
रमाकांत चौधरी - लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश)