संजय राजभर 'समित' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)
मैं मान रहा हूँ हार प्रिये - गीत - संजय राजभर 'समित'
गुरुवार, अगस्त 25, 2022
मान जाओ हे! महारानी,
हम ग़लती से क्यूँ रार किए?
अच्छा तुम ही जीतीं मुझसे,
मैं मान रहा हूँ हार प्रिये।
भोली-भाली छैल छबीली,
हया से भरी नैन नशीली।
हठ करना तेरा जादू है,
सुलझी हुई तू है पहेली।
दो बदन एक प्राण हमारा,
प्रेम रस में आ घुलमिल प्रिये।
अच्छा तुम ही जीतीं मुझसे,
मैं मान रहा हूँ हार प्रिये।
अंदर मोम सी बाहर सख़्त,
तेरा झिड़कना भी है गीत।
क़दम-क़दम पर तू ही थामे,
तू बैरी बनी तू ही मीत।
साथी सुन रे! जन्म-जन्म के,
चलो जलाए मिलकर दीये।
अच्छा तुम ही जीतीं मुझसे,
मैं मान रहा हूँ हार प्रिये।
तेरी ज़ुल्फ़ें तेरी जलवा,
छम-छम बाज रहे हैं पायल।
देख तेरी नाक पर ग़ुस्सा,
आख़िर रहता हूँ मैं क़ायल।
तू प्रेम की दिव्य देवी हो,
तूने ही अविचल भाव दिए।
अच्छा तुम ही जीतीं मुझसे,
मैं मान रहा हूँ हार प्रिये।
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