कान - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

कानों से
सुन-सुन कर प्रवचन,
हम कई 
सपने गड़ते है।
कानों से
बहकावे में,
हम एक
दूजे पर,
दोष मढते है।
कानों के
भरने पर,
भाई भाई में
होता है बँटवारा,
जो होते थे
कभी ख़ास ख़ास।
मंथरा ने
कान भर-भर कर,
केकई ने,
दिया राम 
को वनवास।
कानों के भरने से
पति-पत्नी में
होती है,
निशदिन तकरार।
कानों के भरने से
जिगरी दोस्ती
होती है तार-तार।
कानों के
भरने से ही,
लोग बनते और
बिगड़ते है।
कानों से
सुन-सुन कर प्रवचन,
हम कई 
सपने गड़ते है।
अरुण कली
के कानों में,
झुमका सुंदर भाए।
और बच्चो 
के कानों में,
वाली शोभा पाए।
इस ज़माने में
नई बधुएँ,
आती हैं कान भराईं।
अनसुनी 
कर देती है,
सास-ससुर की,
इच्छाएँ धारायी।
टोका-टोकी
करना,
लगता है बधुओं को अवरोध।
क्योंकि है
उनका लड़कपन,
सोच उथला,
बुद्धि से हैं बोध।
महाभारत में
अनसुनी कर,
अश्वस्थामा
परलोक पहुँचाए।
अंग्रेजो को
कूट नीति से
राजे महाराजाओ ने
अपनो पर हत्याचार करवाए।
कानों की
न सुनो और
न मानो,
देखो अपनी आँख से
फिर आगे बढ़ते है।
कानों से
सुन-सुन कर प्रवचन,
हम कई 
सपने गड़ते है।

रमेश चन्द्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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