अभिमन्यु वध - कविता - परमानन्द कुमार राय

शंखनाद की बजी ध्वनि जब
कुरुक्षेत्र के धर्म समर में।
हो बेचैन से लगने लगे थे उस क्षण,
युधिष्ठिर, अर्जुन के विरह में।

भीम भी भयभीत दिखे तब
गुरुद्रोण के रणक्षेत्र समर में।
ज्येष्ठ पिता श्री! कहता हुआ एक शूरवीर,
हुआ प्रवेश युधिष्ठिर के व्यग्र मन में।

अमित, ओजस्वी, शूरवीर
अभिमन्यु, अब था रण में।
चक्रव्यूह का तोड़ व्यूह प्रवेश, 
किया द्रुतगति से क्षण में।

भीम गदाधर, महारथियों के संग 
भेद न पाया चक्रव्यूह,
अभिमन्यु के अतिरिक्त
कोई उस क्षण में !

अभिमन्यु का कर न पाया, सहयोग रणभूमि के उस रण में।
चक्रव्यूह का व्यूह तोड़ अकेले अब, 
अभिमन्यु लड़ रहा था सातवें चरण में।

कौरवों का अभिमान कर मर्दन,
सबको लज्जित किया था क्षण में।

लहू-लुहान थे कौरव, लहू लुहान थी रणभूमि समर में।
अभिमन्यु की देख,
रण कौशलता रण में।
दुष्ट दुर्योधन भयभीत हो गए थे उसी क्षण में।

हार स्वाद का स्वप्न भाप, दुष्ट दुर्योधन समर में,
ले लिया अधर्म का साथ उसी क्षण उसी रण में।

आठ-आठ महारथियों को जब
प्राण ला दिया काल के कंठ में।

सबने हार मान लिया जब धर्मयुद्ध में
अधर्म का लिया सहारा तब समर में।

रक्त की धधकती धारा लाल प्रवाहित हुई कुरुक्षेत्र के समर में,
देख दुर्योधन छल कपट कर
दे दिया आदेश उसी क्षण में।

मुझे चाहिए शीश, इसका, इसी क्षण, इसी रण में,
किसी तरह से कर समर्पण,
महारथी, मेरे चरण में।

द्रोण, कर्ण, कुल गुरु कृपाचार्य
सबने छोड़ा धर्म का जब साथ,
भूल गए युद्ध, नियम-विधान बनाए थे जो भीष्मपितामह गंगापुत्र महान।

अस्त्र विहीन होके भी वीर अभिमन्यु,
कर रहा था सामना,
रथ चक्र उठाके रण में।

दुर्जय वीरों को धूल चटाके, महाभारत के समर में
लड़ रहे थे शूरमा अकेले, उस चक्रव्यूह के रण में।

शौर्य गाथा, क्या सुनाऊँ 
रक्त रंजित हुआ था, समर में
जयद्रथ छिपके, पीठ पीछे से वार किया,
अधर्म से उसे रण में।

तलवार पीछे से घोंप दिया,
अभिमन्यु का युद्धकौशल देख उस रण में।
एक-एक कर, बारी-बारी से, किया है सबने तलवारप्रहार,
मिलके सब अभिमन्यु का तब दिया है शीश उतार।

रक्त रंजित सा हुआ रण क्षेत्र और लाल सी भूमि हो गई।
एक अभिमन्यु अकेला ही सहस्त्रों को अपने भय से भान करा गई।।

बह निकली रक्त की धारा, धरा पर वहाँ।
अभिमन्यु की अंकित अमर सी हो गई, विजयगाथा वहाँ।।

परमानंद कुमार राय - अंधराठाढी, मधुबनी (बिहार)

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