गाँव - गीत - पंकज कुमार 'वसंत'

जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।
कुछ पंचायत गली-गल्प की, कुछ पंचायत वादों की।

(गाँव गली)
कंकड-पत्थर ने पैरों पर,
साँझ-सवेरे दोष लगाया,
जिसने जीवन की राहों पर,
भूल चुभन चलना सिखलाया।
धूलधूसरित उड़ी हवाएँ
साँस-साँस बेदम करती थी,
सड़क किनारे सोए बिरवें
जिनकी पतियाँ ख़म भरती थी।

चौराहे पर रोके रक्खा, पतली सोती कादो की।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

चार-मुहानों पर गलियों के
कल्पित स्वर्गलोक का अभिनय
इक  इंद्र, इक यम, दूतों संग
चयनित चार सभासद सविनय
मुझे बनाते चित्रगुप्त, मैं–
पाप-पुन्य बाँटा करता था,
राज काज में विध्न डालती
परियों को डाँटा करता था!

मिली धूल से सनी वहीं चुप, इक टोली गंधर्वों की।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

अँगरक्खा भी नहीं वदन पर
राजकुँवर से फिरा मचलकर,
पूछ न थकती हैं वे गलियाँ
कहाँ गया उसका मुरलीधर
करें लड़ाई  भी वञ्जारें 
जीत-हार बाँटा करते थे
अगर किसी ने की बदमाशी
सब बुज़ुर्ग डाँटा करते थे।

रिश्ते में चाचा बाबा सब, क्या लाला कुरमी ताती।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

शब्द ज्ञान भी नहीं मगर हम
अलमस्तों की पंडित टोली
अपने-अपने शब्दकोष की
सधी वर्तनी मीठी बोली     
हिंदी में मैथिली बज्जिका,
फेट-फाँट कर अपनी भाषा,
सुरूज चान परेम पीयार
साग सगौती फुलकी पासा।

मुरूत भुक्खल अदमी चिडई, पनसोखा ओ पनबिजली।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

हे मलाहिन! कौन हौ मछरी,
आज बोआरी हौ कि गइचा?
लेकिन आज न पल में पैसा,
बोला, आज खिलयवा पैचा?
भूँजा-कचरी साड़ी वाली,   
रंज न होती बस मुस्काती!
छुप-छुप फबती कसे छिछोरा
सुन-सुन हँसती औ' शरमाती!

अर्थ अलग थे अपभ्रंशों में,जबकि उन संवादों की।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

खेत चर गई भागी भैसी
या कि भूला कोई उधारी!
मर्यादा भूली मेहरारू,
अथवा अबला बनी सवाली
सरकारी सरपंच नहीं पर    
हर निर्णय परमेश्वर वाला,
कोई अगड़ा, कोई पिछड़ा
व्यक्ति मज़हब बना न ताला।

प्रेमचंद को मिली वहीं ज्यों, कथा पंच परमेश्वर की।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

(घर-परिवार)
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।
कुछ पंचायत गली-गल्प की, कुछ पंचायत वादों की।

बाबा से बाबू जी को जो,
मिले पुराने घर, माटी के।
राजमहल वो बचपन वाले, 
परकोटे जिसके टाटी  के।
कोने-कोने बिछा इजोराज़
शांति, देहरी अँगनाई में,
कच्ची-मीट्टी की बुनियादें,
पड़ी न छत पर कठिनाई में।

गंध चुराते तितली-भौरें, परिजन के संवादों की।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

जो बेटी ससुराल सजे ना, 
वह बेटी भोली या पगली,
लेकिन पुत्र, सुपुत्र वही जो 
सज लेता, अपनी जन्म-स्थली।
भले स्वनिर्मित घर पत्थर से,
छत- दीवारें रंग-बिरंगी,
मगर सजे घर तब पुरखों के,
जब वंशधर हों अंतरंगी।

तब-तब ठिठके पाँव गाँव में, उभरी बातें पुरखों की।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

टूटा-फूटा घर देवालय  
एक अकेला चौहद्दी में,
आज खड़ें वहीं चमचमातें
चार निलय, सब हदबंदी में।
जब-जब पाया कोई अवसर,
दरवाज़े ने पंच बुलाया,
चार सीढ़ियां इक माथे पर,
इस निर्णय पर रंज जताया।

चार अँगनाई मुद्दई-सी, चश्मदीद चारों ढ्योढ़ी।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

दीवारों की अपनी पीड़ा,
दोष-मुक्त होने की चाहत,
बच्चों की आवाजाही में,
अवरोधक बनने से आहत!
खिड़की के पल्ले, पर्दे भी,
रंज, देख कर पहरेदारी,
टोका-टाँकी ताक-झाँक की,
चाहें, अपनी हिस्सेदारी।

छत माँगें इंसाफ़ बँटी क्यों, बारिश सावन-भादों की?
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

घर पिछवाड़े बुढ़ी साइकिल,
विजयी स्यंदन टायर-गाड़ी,
लिएँ मसौदे आरोपों के  
आरोपित थी मोटर गाड़ी।
रंभाते बैलों की जोड़ी, 
छाया-साया बन आ जाती,
घर की दादी भूरी बिल्ली, 
ढ़ीठ हठीली नयन नचाती।

चार बकड़ियाँ काकी वाली, ढूँढ़ रही रस्सी-खूँटी।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

बाबू जी का प्यारा तोता 
राम-राम करता आता है,
कौआ जो संदेशा लाता 
माँ की याद दिला जाता है।
मुट्ठी भर चावल के दानें,
फेंक मुँडेरे पर जब अम्मा,
विश्वासों से भर जाती थी,
भइया आएँगें या पहुँना।

न्याय माँगता वह हरकारा, मिले न भूसी कोदो की।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

मिली भटकती चारों घर में,
पुरखों की पावन आत्माएँ!
किसमें ठहरें किसमें बाँटे,
अपने नेमत और दुआएँ?
तस्वीरों में जिनकी काया,
अलग-अलग सूरत में अंकित,
चाह रहें समवेत प्रार्थना, 
वंश न झेले दंश, सशंकित!

चार थाल मेवा मिश्री पर, कुलदेवता की आपत्ति।
जब-जब गाँव गया मैं अपने, हुई सभाएँ यादों की।

पंकज कुमार 'वसंत' - मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)

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