नौका - कविता - संजय कुमार चौरसिया

नौका तेरी चौका में गुण 
कितने हैं, क्या जाने कोई?
इस पार किनारे से लेकर
उस पार किनारे तक जाती।
उस पार लगाते धीरे-धीरे,
कितने उथल-पुथल थपेड़े खाती।
अंधड़ हो या पत्थर हो, या
लहरों से भरा समन्दर हो,
सबसे करती है आलिंगन,
कितनों का आलंबन बन जाती।
कैसे ये तुम्हारा हिल डोला, 
संतुष्ट ना मानव का चोला,
अपनी ख्यावा की मधुर ध्वनि से,
निरंतर जीवन का संदेश सुनाती।
बड़-ठिठुक अपने कर्मों से,
जीते कई सुख खुद धर्मों से,
हो गई है नौका अब जर-जर,
फिर भी करती निर्वाहन मर-मर,
वो चाहती मेरे तख्तों से, आए
नई नौका जुड़वाने कोई....

नौका तेरी चौका में गुण कितने हैं,
क्या जाने कोई।।।

संजय कुमार चौरसिया - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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