फागुन की बहार - कविता - शीतल शैलेन्द्र 'देवयानी'

आज रंग अबीर गुलाल मन को
हृदय को कोर कोर रंग गयो,
चुपके से कोई भँवरा आयो
मन मयूर सा मचल गयो।

रंगों रगींली छैल छबीली
उसके रंगों में रंग गई,
पहले थी जोगन मै उसकी
अब उसके साथ आत्मीय परिणय में बंध गईं।

हो गई जोगन से यौवना में परिवर्तित
जब हृदय आलिंगन कर गई,
हो गई आज मैं मतवारी
देखो प्रेम मदिरा मैं चख गई।

आई ऐसी इस बार फागुन की बहार
सच मानो मन ही मन में खिल गई,
डारो मोपे रंग प्रीत को ऐसों
मैं तो जा होरी कान्हा की प्रीत में रंग गई।

होके मतवारी आज फिरू मैं
प्रेम लता मन में रमढ रमढ लिपट गई,
लाख झुड़ायो रंग झीनी सी चुनरिया से
पर लाल-लाल, लाल के ही रंग में रंग गई।

सुध-बुध नहीं अब मोहे काहु की
मैं तो वृंदावन की पुष्प लता सी खिल गई,
धोएँ लाख छुड़ायो जा कै ताल तलैया में रंग प्रीत को
पर उतने ही गहरे सागर जल में उतर गई।

न मैं बावरी न मैं कोऊ मतवाली
पर प्याला‌ प्रेम मधु रस मैं चख गई,
जब से देखी नदंबाबा के लाल की मुरतिया
पाने को जसुमति लाल को हृदय से मैं मचल गई।

जा फागुन न छोड़ूँगी तोहे देवकी के सुत
लोक लाज सब तज के ब्रज मे,
वृषभानु दुलारी मैं, खेलूँगी तोहरे संगें 
फागुन में जी भर के होरी।।

शीतल शैलेन्द्र 'देवयानी' - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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