मैं जी गया - कविता - विनय विश्वा

आज जीने का आधार मिल गया
कल तक भटकता-फिरता था
आज जीवन के साथ चलने का
ईनाम मिल गया
एक नन्हा बीज मिल गया।

कितना स्वार्थी था यह पिता
अपने स्वार्थ में जीवन जीता था
नाम, शोहरत, धन-दौलत के चक्कर में
तनिक न ध्यान देता था
पर आज रुका।
अपनी ज़िंदगी से ज़रूरी है किसी की
ज़िंदगी में शामिल हो जाना
उसके सपनों को परवाज़ देना
यही ख़्वाहिश हैं
अब मैं जी गया
अब मैं जी गया...
      
विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)

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